व्यक्ति नहीं संस्था हैं शंभुनाथ

प्रेमचंद की बिरादरी

संस्मरण


-डॉ.अभिज्ञात 

साढ़े उन्नीस साल बाद मेरी पत्नी प्रतिभा सिंह अपनी ससुसाल पहुंची थी। अठारह पार की बेटी मृदुला के साथ। यह अनायास नहीं था कि जब कभी इस भोजपुरी गायिका से कोई पूछता कि आप कहां की हैं तो उसका जवाब होता बलिया जिले के रोहुआं गांव की, जहां वह पैदा हुई। आज़मगढ़ जिले के कम्हरियां गांव में ब्याही गयी नहीं कहती थी। उसका एक कारण यह भी था कि वह कभी वहां गयी ही नहीं थी। मेरे नाना ने शादी अपने यहां बलिया शहर के मिड्ढी स्थित आवास से की थी जहां से बारात रोहुआं गयी और प्रतिभा दुल्हन बनकर मिड्ढी ही आयी। जहां से वह कुछ दिन बाद सीधे कोलकाता आ गयी मेरे साथ। मेरे बाबूजी महाराष्ट्र के तुमसर में उन दिनों कार्यरत थे। सो जब भी हमें फुरसत होती हम उनसे, मां व भाई बहनों से मिलने तुमसर ही चले जाते थे। गांव जाना नहीं हो पाता था। बाबूजी रिटायर हुए तो भी अरसे तक गांव में ठीक से टिके नहीं। कभी छोटे भाई के यहां हैदराबाद तो कभी बहन के यहां गुड़गांव तो कभी हमारे यहां कोलकाता। तुमसर भी आसानी से नहीं छूट रहा था सो वहां भी किराये का कमरा ले रखा था। गांव वे थोड़े समय के लिए जाते भी तो जब तक हम वहां जाने की योजना बनाते वे वहां से कूच की तैयारी कर रहे होते थे सो हम नहीं जा पाये। प्रतिभा न तो पास पड़ोस के लोगों से ठीक से ससुराल की बातें कर पाती और ना ही मीडिया से की गयी बातचीत में। अलबत्ता वह यहां आज़मगढ़ सेवा समिति की सदस्य ज़रूर बन गयी थी जिनके लिए वह कार्यक्रम पेश करती है और जहां से आज़मगढ़ कोकिला का सम्मान भी पाया है। मैं अलबत्ता ज़रूर इस बीच एक बार दो साल पहले गांव हो आया था उस वक्त प्रतिभा अपने नये कैसेट के लिए गीतों की रिकार्डिंग में व्यस्त थी सो नहीं जा पायी थी। बेटी का कहना था कि मां के साथ ही जायेगी पहली बार अपने गांव।

और अब जाकर सुयोग जुटा। शादी के वक्त तो घनिष्ठ रिश्तेदार ही पहुंचे थे सो अब जाकर गांव ने महसूस किया एक गायिका दूल्हन आयी है यहां। मुहंदेखायी की रस्म भी हुई और प्रतिभा ने इस रस्म के रुपये भी पाये। हालांकि लोग उसके गीतों का अल्बम पहले ही देख चुके थे। और उसके कई कैसेट कई लोगों के पास थे। बाबूजी-मां ने यह सब किया था। हम लोगों के बारे में जब गांव में पूछताछ होती तो कभी वह प्रतिभा के कैसेट किसी को पकड़ा देते तो कभी मेरे कविता संग्रह। लेकिन मैंने पाया कि गांवों में भी लेखकों की तुलना में गवैये ही अधिक लोकप्रिय हैं। लम्बी सड़क यात्रा ने बेटी को सूट करती थी न प्रतिभा को सो उससे किसी हद तक बचने के लिए जाते वक्त हमने वाया बलिया का रास्ता चुना था। सियालदह से बलिया ट्रेन से उतरे। वहां से कुछ देर बाद सारनाथ एक्सप्रेस से औड़िहार। वहां से गांव तक की सड़क यात्रा 18-19 किमी ही थी। सुखद यह रहा है कि 300 रुपये लगे किन्तु आटो रिक्शे से हम अपने घर के दरवाज़े तक पहुंच गये। मौधा बाजार में थोड़ा रास्ता निर्माणाधीन था वरना सड़क सही माने में बेहतर हो चुकी थी। सारनाथ एक्सप्रेस जब बलिया से खुली तो एक भिखमंगा भरत शर्मा के भोजपुरी गीत गा रहा था। सो प्रतिभा ने गीतों की चर्चा छेड़ दी तो ट्रेन के कुछ अन्य लोग भी बातचीत में स्वतः जुड़ गये। भरत जी के प्रति प्रतिभा का स्वाभाविक रुझान इसलिए भी इन दिनों बढ़ा था क्योंकि उनके साथ एक भोजपुरी फिल्म भाई होख त भरत नियन में छोटी सी भूमिका भी निभायी थी जो अगस्त में रिलीज होने जा रही है। हमें अच्छा लग रहा था कि लोग मनोज तिवारी मृदुल की चर्चा भी कर रहे थे। जिन दिनों मनोज अपने रिश्तेदार साधुशरण तिवारी के यहां कोलकाता में रह रहे थे हमारे घर उनका अक्सर आना जाना था और मैत्री भी। एसएस तिवारी ओएनजीसी में थे और मनोज से परिचय के पूर्व ही मेरे मित्र थे। मुंबई तबादले के बाद उनसे सम्पर्क टूट गया। खैर ट्रेन जब गाजीपुर स्टेशन रुकी तो प्रसंगवश लोगों ने बताया कि बिरहा गायक निरहुआ यहीं गाजीपुर के हैं। जो अब मुंबई में रह रहे हैं। मैंने अखबारों में उनकी चर्चा देखी थी कि इन दिनों फिल्मों में अभिनय से भी जुड़े हैं। विदेशों में भोजपुरी नाटकों की प्रस्तुति कर वाहवाही बटोरी है। प्रतिभा गाजीपुर में तीन-चार मर्तबा आ चुकी थी गाने के लिए। गाजीपुर ही क्या आज़मगढ़ जिले में भी कुछेक स्थानों पर किन्तु ससुराल में अपने घर विधिवत नहीं जाने की वजह से वह अकेले या साजिन्दों के साथ नहीं जा पा रही थी संकोचवश। पता नहीं लोगों की क्या प्रतिक्रिया हो। हालांकि ऐसी हिचकिचाहट उसे रोहुआं अपने मायके जाने में नहीं थी और वह आसपास कोई कार्यक्रम करने जाती है तो पहुंच जाती है बेहिचक। अब तो उसके गांव जवार ने भी उसे स्वीकार लिया है कि अपने यहां एक गायिका है और वह नाम रोशन कर रही है। गांव पहुंचती है तो वहां के बड़े बुजुर्ग भी उससे मिलने आते हैं। हम औड़िहार पहुंचे तो गांव जाने के लिए आटोरिक्शा वाला तैयार हो गया तीन सौ रुपये में दरवाजे तक छोड़ने के लिए। मैं क्या मृदु और प्रतिभा भी बस यात्रा के पक्ष में नहीं थे। ऐसे में यह यात्रा हमारे लिए एकाएक अत्यधिक सुखद हो गयी थी। इस बीच बाबूजी को फोन आया तो हमने बता दिया कि सीधे दरवाज़े तक पहुंच रहे हैं। मां-बाबूजी अपनी बहू के गांव आने के लेकर खासे उत्साहित थे।---
गांव में प्रतिभा की गायकी को मान्यता तो मिली किन्तु मंच नहीं मचिया मिला। सबके लिए खाट कुर्सी चौकी का आसन था और बहुओं के लिए मचिया। अब पीढ़े का चलन हमारे गांव से उठ गया है। गांव की औरतें प्रतिभा को घेर लेती और वह सबके गाने की फरमाइशें पूरी करने में जुट जाती। मां को अच्छा लग रहा था यह सब। मां ने हमारे पहुंचने पर सत्यनारायण भगवान की कथा रखवाई। कथा के बाद गवनई में भी प्रतिभा की मुख्य भूमिका अपने आप हो गयी। पंडित जी ने सबके सामने कह दिया। ऐसी बहू इलाके में नहीं आयी थी। गायन का एक विराट कार्यक्रम वे रखवायेंगे। गांव की इकलौती काम वाली बाई उसकी गायकी पर फिदा थी सो वह हमारे वहां पहुंचने और फिर दीदी व जीजाजी के जौनपुर से आ जाने से बढ़े काम को करने में आनाकानी नहीं कर रही थी। यहां तक कि हमारे लिए उसने साम्भा चावल भी पछोर दिया दिया जो हमें बेहद प्रिय था। अपने खेत का चावल जो यहां के बाजार में दस-ग्यारह रुपये किलो था कोलकाता में उस दर्जे का चावल पचीस रुपये से कम में क्या मिलेगा। हम कोलकाता में बाइस रुपये किलो का जो चावल खाते हैं वह मेरे गांव के चावल का मुकाबला क्या करेगा। साम्भा के आगे तो यह घास भूसा ही लगता है। मैं तो किसी तरह सात किलो चावल ही ले आया अपने साथ। गांव में पता चला कि मेरे रिश्तेदार जो ज्यादातर मुंबई में हैं अक्सर गांव का चावल ही ले जाते हैं। हालांकि कम्हरियां और रोआंपार दो गांव में बसे हमारे परिवार के लोग खेती बारी में कतई दिलचस्पी नहीं लेते। सब शहरी कमाऊ हैं। रिटायरमेंट के बाद ही गांव की सुध आती है। मुझे अचरज हुआ कि हमारे पास ऐसे कई चकआउट हैं जिन पर तीस-चालीस साल से खेती नहीं हुई है। और तो और बंटवारे के कारण एक से छह घर बने किन्तु जमीन का बंटवारा नहीं हुआ है। बंटवारे के मकसद से लोगों को जुटाना टेढ़ीखीर है क्योंकि कई लोगों की इसमें भी कतई दिलचस्पी नहीं है। कुछ जमीनों से दूसरे मिट्टी काट ले गये हैं तो कई दूसरे दखल करने में जुटे हुए हैं। ऐसे में साम्भा जैसी चावलों की महिमा कौन समझे।
बेटी को गांव भा गया था। खेत, बगीचे, कई टुकड़ों में बंटे घर, साझे दुख सुख की चर्चाएं उसे सम्मोहित कर गयीं। बेटी को यह जानकर अच्छा लगा कि गांव में रहने वाले लोग भी उसके नाम से वाकिफ हैं। किन्तु मां ने एकाधिकबार कहा कि बेटियों का क्या है वे शादीब्याह के बाद अपने घर चली जायेगी। बाद में मृदु ने मुझसे कहा –‘दादी को समझा देना ठीक से कि यह मेरा गांव और मेरा भी घर है। मैं सब कुछ यूं ही छोड़कर नहीं जाने वाली। मैं चाहे जो करूंगी पर बेचूंगी नहीं। पापा आपका हिस्सा मेरा होगा न यदि मैं आपकी इकलौती संतान हूं। और जल्द ही उसने इस बात का जवाब ढूंढ लिया था कि वह गांव की जमीनों का क्या करेगी? वह मेरा स्मारक बनवायेगी। सब कुछ महफूज रखेगी अगली पीढ़ियों तक के लिए। अपने बच्चों व नाती-पोतों के लिए।
स्मारक का खयाल उसे लमही में प्रेमचंद स्मारक देखते वक्त आया और उसने इस योजना में तत्काल अपनी मां को शामिल कर लिया। हमने कोलकाता वापसी के लिए वाया वाराणसी मार्ग चुना था। सात सौ रुपये में बाबूजी के एक मित्र बदरी के बेटे पप्पू की कमांडर ठीक कर ली गयी थी गांव से बनारस तक के लिए। मना करने पर भी उम्र में मुझसे एक साल बड़े किन्तु मित्रवत सम्बंध रखने वाले चाचा ढून्नू (अनिल सिंह) बनारस पहुंचाने जाने को तत्पर हो गये। वे मुंबई में कार्यरत हैं। दो दिन बाद गांव से उनकी रवानगी थी। रास्ता अच्छा कटा और राह में ही योजना बन गयी लमही में घंटा भर गुजारने की। पप्पू ढून्नू के सहपाठी रहे हैं। सो वे उत्साह में हमें बनारस से ठीक पहले लमही ले गये प्रेमचंद द्वार से। प्रेमचंद द्वार के पास बनी किसानों की मूर्तियां और मार्ग के दोनों ओर बने प्रेमचंद उद्यान छोटे किन्तु आकषर्क लगे। लगभग एक किलोमीटर पर लमही में प्रेमचंद का पैतृक आवास, पास में बना पक्का कुआं वहीं बना प्रेमचंद स्मारक हमारे लिए एक स्वप्नलोक में पहुंचने जैसा था। प्रेमचंद को अनुभव करने के लिए लमही सबसे उपयुक्त जगह थी।
 प्रेमचंद का आवास बंद था नहीं जानता कि वह पयर्टकों के लिए खुलता है या नहीं फिर भी एक तृप्ति मिली उसे देखकर। पढ़े सुने गुने का भौतिक साक्ष्य कम उपलब्धिपूर्ण नहीं होता। उससे कल्पना को अपनी उड़ानों के साथ-साथ एक ठोस धरातल भी मिल जाता है जिससे उड़ान का नया तेवर मिलता है। वहीं एक शिला पर स्मारक के निर्माण के सम्बंध में विवरण था जिस पर कोलकाता की सांसद सरला माहेश्वरी का नाम भी था जिसके कारण लमही से एक और सम्बंध जुड़ता हुआ महसूस हुआ था। सचमुच किसी को मान देने के लिए भौगोलिकता की सीमाओं का कोई अर्थ नहीं। किन्तु यदि बंगाल में प्रेमचंद हुए होते तो यह स्मारक और भव्य और गरिमामय होता इसमें संदेह नहीं। बंगाल अपनी प्रतिभाओं को मान देना बखूबी जानता है। यदि यह स्मारक बंगाल में होता तो स्मारक परिसर में बने दो कमरों से जुड़े बरामदे में किसी चित्रकार गंगा प्रसाद की बनायी प्रेमचंद की तस्वीरें कम से कम शीशे के फ्रेम में तो मढ़ी गयी होतीं। और वहां प्रेमचंद के साथ साथ कुछ और लोगों के जो उद्धृरण दिये गये हैं उसमें तार्किकता होती। इंदिरा गांधी का अन्तिम वक्तव्य वहां देने की कोई तुक नहीं थी-मेरे खून का हर कतरा....। इस वक्तव्य से प्रेमचन्द का क्या वास्ता।
स्मारक परिसर में बने दो कमरे हमारे आकर्षण का केन्द्र अब भी थे। हमे लगा कमरों में प्रेमचन्द की न जाने क्या स्मृतियां रखी हों। वहां के एक सज्जन ने कहा कि पुस्तकालय खुलने का समय तो हो गया है वहां मोबाइल नम्बर दिया है वहां फोन करके बुला लीजिए। फिर उन्होंने ही हमारे फोन से बात कर किसी को बुलाया। हम स्मारक व प्रेमचंद की स्मृतियों के सम्बंध में बहुत सारे सवालों के साथ वहां था प्रतीक्षा के आधे घंटे बात 14 साल का एक बालक आया चाभी लिए हुए और उसने दरवाजा खोल दिया एक कमरे का। कमरे में जो था वह निराश करने वाला था। वहां एक मेज पर प्रेमचन्द की प्रकाशित पुस्तकें थीं। जो देश में संभवतः हर जगह सहज उपलब्ध होंगी। फर्श पर भी कुछ पुस्तकें व पत्र पत्रिकाएं थीं। जो लोगों स्थानीय लोगों को पढ़ने के लिए दी जाती थीं। मैंने वहां से पहली पुस्तिका उठायी देखने के लिए वह थी ब्यूटी गाइड। प्रेमचंद स्मारक में ब्यूटी गाइड जैसी पुस्तकों के पाठक क्यों तैयार किये जा रहे हैं इसका जवाब देने के लिए वहां उपस्थित बालक उपयुक्त पात्र नहीं था। हमने कहा बगल वाला कमरा भी खोलिये, उसमें क्या हैं हम देखना चाहते हैं। उसका जवाब था वह तो खाली है। वहां कुछ भी नहीं। और हां बरामदे में भी कुछ पत्रिकाएं स्टैंड पर लगी थीं वह थे धर्मयुग और माया के कुछ पटे पुराने अंक और इंडिया टुडे जैसी पत्रकाएं।
स्मारक परिसर दिव्य बना था जिसमें एक कोने में प्रेमचंद की संगमरमर की मूर्ति थी। परिसर में जगह जगह जो प्रकाश के लिए सजावटी लौह स्तम्भ लगे थे जो चित्ताकर्षक थे। बेटी ने कहा पापा हम भी गांव में आपका स्मारक बनायेंगे। उसकी बातों में मासूमियत थी। 18 वर्षीय मृदुला बीबीए की थर्ड सेमेस्टर की छात्रा है। उसे साहित्य का ककहरा भी पता नहीं। उसे नहीं पता की प्रेमचंद जैसे लेखकों के लिए सदियां तरसती हैं। उसे बस इतना पता था कि मैं प्रेमचंद की बिरादरी का हूं।

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