डॉ.अभिज्ञात
जिन कुछेक लोगों ने हिन्दी पत्रकारिता की विश्लेषणात्मक
क्षमता और उसकी रीति-नीति का निरन्तर विस्तार, आविष्कार और परिमार्जन
किया उनमें प्रभाष जोशी का नाम प्रमुखता से लिया जायेगा। धार और संवेदना की जैसी जुगलबंदी
उनकी भाषा में दिखायी देती है वह हिन्दी पत्रकारिता में विरल होती जा रही है वरना पत्रकारिता
की भाषा का इकहरापन चिन्ताजनक है। भाषा का छंद नारों से नहीं नीयत से आता है यह प्रभाष
जी जैसों के लेखों से ही जाना जा सकता है। उनके 'कागद कारे'
शृंखला के आलेख न तो कभी पुराने पड़ने हैं और ना ही वे कभी अप्रासंगिक
होंगे क्योंकि उनमें देश दुनिया का जनमानस लगातार अपनी टोह में लगा हुआ दिखायी देता
है। हमारी घनीभूत चिन्ताओं की शक्ल क्या है ही उनमें नहीं दिखायी देती बल्कि यह भी
कि उसके निहितार्थ क्या हैं या भी समझाने का महती प्रयत्न दिखायी देता है। मामूली और
आम बातें, घटनाएं और लोग उनके आलेखों में आकर जो रूपाकार ग्रहण
करते थे वह उन्हें एक सार्थक बहस का बेहद जरूरी हिस्सा बना देता था। मैं अक्सर समय
के अभाव में उनका आलेख प्रकाशन के दिन नहीं भी पढ़ पाता था तो कई दिनों तक पुराने अखबार
को रखे रहता था कि उनका आलेख पढ़ लूं तो फिर अखबार को रद्दी समूह के कागज़ों में डालूं।
अक्सर उनके आलेख उन मुद्दों पर भी रहते तो ज्वलंत प्रश्नों से मुठभेड़ लेते थे उन आलेखों
में उनकी खरी नीयत बोलती थी और साफगोई उसमें नया पैनापन देती थी। मुझे क्रिकेट में
तो कभी दिलचस्पी नहीं रही फिर भी कभी कभार क्रिकेट पर लिखे लेखों को भी पढ़ने की कोशिश
करता। क्रिकेट पर तो हिन्दी में शायद उनके जैसा दूसरा टिप्पणीकार न होगा।
मैंने कभी सोचा न था कि पत्रकार बनूंगा फिर भी अनायास
ही पत्रकारिता से शौकिया जुड़ गया जनसत्ता कोलकाता से और स्ट्रिंगर बन गया.। उन दिनों
मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय से केदारनाथ सिंह पर पीएचडी के लिए शोध कर रहा था और अपने
नानाजी के ठेकेदारी के कामकाज में हाथ बंटाता था। पेशे के तौर पर पारिवारिक स्तर पर
तय हो चुका था कि नौकरी नहीं कारोबार करना है। उन्हीं दिनों दो एक बार प्रभाष जी को
कुछ करीब से देखने का अवसर मिला। ऐसी दो एक सभाओं की कवरेज करने भी गया जिनमें प्रभाष
जी वक्ता थे। उनमें एक सभा वह भी है जिसमें पं.विष्णुकान्त शास्त्री कार्यक्रम की अध्यक्षता
कर रहे थे। उस समय वे संभवतः भाजपा के लोकसभा सांसद भी थे। यह तो नहीं याद है कि सभा
का मुख्य विषय क्या है किन्तु प्रभाष जी एनरान पर बोले थे और तत्कालीन भाजपा नीत सरकार
की एनरान के मुद्दे पर भूमिका की जम कर मलामत की थी। अध्यक्षीय भाषण में विष्णुकान्त
जी ने उनकी बातों का जवाब दिया था और उनके तर्कों को दरकिनार कर दिया था। ऐसा लगा था
कि प्रभाष जी के तर्क कुछ कमजोर पड़ गये हैं। विष्णुकान्त जी अध्यक्षीय भाषण देकर सभा
की समाप्ति की घोषणा भी कर दी। लेकिन प्रभाष जी विष्णुकान्त जी के तर्कों का फिर से
जवाब देने से चूकना नहीं चाहते थे। वे लपक कर फिर माइक के पास पहुंच गये और कहा कि
मुझे यह अनुशासन पता है कि अध्यक्षीय भाषण के बाद फिर वक्तव्य नहीं दिया जाता है लेकिन
इस अनुशासन से बढ़कर भी कुछ बातें हैं जिसके कारण मैं फिर बोलना चाहूंगा और विष्णुकान्त
जी या अन्य किसी और की सहमति की प्रतीक्षा किये बिना ही उन्होंने बची खुची कसर निकाल
ली और फिर मंच से उतर कर तेजी से अपनी कार की ओर बढ़े। इधर, कई भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रभाष जी का वक्तव्य नागवार लगा और वे उन्हें घेरने
का प्रयास करने लगे। वे जब तक कार में बैठते चारों ओर से भाजपा कार्यकर्ताओं ने घेर
लिया था और उन्हें अपशब्द भी कहने पर उतारू थे वह तो भी भीड़ का रुख देखकर विष्णुकान्त
जी वहां पहुंचे और किसी प्रकार यह कहकर लोगों को गाड़ी के आगे से हटाया कि प्रभाष जी
पत्रकार हैं और पत्रकारों को कुछ भी कहने की आजादी होती है, उन्हें
कहने दीजिए। आप लोग संयम बरते।
दूसरी एक घटना मुझे याद है जो प्रभाष जी के अभिव्यक्ति
की आजादी के प्रति उनके रवैये को स्पष्ट करती है। वह घटना है एक साहित्यक समारोह की
है। उसमें प्रख्यात ललित निबन्धकार डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र प्रधान वक्ता थे। मंच से
उन्होंने जनसत्ता की भाषा नीति की जमकर आलोचना की थी और नाम लेकर कहा था कि प्रभाष
जोशी जैसे पत्रकार अपने आपको कबीर बनते हैं और भाषा से खिलवाड़ कर रहे हैं। पता नहीं
पत्रकार किस हेकड़ी में रहते हैं। इस वक्तव्य में कुछेक हर्फ़ इधर उधर हो सकते हैं
मगर लब्बोलुबाब यही था। उल्लेखनीय यह है कि वहां मंच पर प्रभाष जी नहीं थे वरना वे
उसका जवाब स्वयं देते। मेरी ड्यटी इस कार्यक्रम की रिपोर्टिंग की लगी थी। मैंने जो
रिपोर्ट लिखी थी उसमें मैंने इंट्रो ही प्रभाष जी के भाषा सम्बंधी रुझान पर कृष्णबिहारी
जी की आपत्ति को बनाया था। मामला संवेदनशील होने के कारण डेस्क ने रिपोर्ट की कापी
कोलकाता के स्थानीय सम्पादक श्री श्याम आचार्य तक पहुंचायी और उन्होंने उसे दिल्ली
फैक्स किया ताकि उसके प्रकाशन के सम्बंध में प्रभाष जी की राय ली जा सके। और राय हां
में थी। वह रिपोर्ट उसी प्रकार प्रकाशित हुई। सचमुच प्रभाष जी ने पत्रकारिता की भाषा
को जनभाषा के करीब लाने का न सिर्फ प्रयास किया बल्कि भाषा की शास्त्रीयता की दुहाई
देने वालों से इस मोर्चे पर लोहा भी लिया जिसकी यह घटना उदाहरण है।
प्रभाष जी के मालवा अंचल और कुमार गंधर्व पर कई लेख
जब तक पढ़ने का मौका मिलता रहा था। जब मैं अमर उजाला, जालंधर से वेबदुनिया डाट काम में कार्यभार संभलाने के लिए इंदौर गया तो इंदौर
से पहले ही वह स्टेशन देवास मिला जिसके बारे में मैं पर्याप्त पढ़ चुका था और इंदौर
भी मुझे इसलिए भी पहले से परिचित और मोहक लगा। प्रभाष जी के आलेख में वह शक्ति है जो
अर्थ ही नहीं पूरी संवेदना को पाठक तक पहुंचाती है। एक ही संस्थान होने के कारण कुछेक
बार मुझे वेबदुनिया कार्यालय से नयी दुनिया कार्यालय जाने का मौका मिला था तो वहां
भी प्रभाष जी की चर्चा सुनी थी जहां से उन्होंने अपने पत्रकारिता करियर की शुरुआत की
थी। वेबदुनिया कार्यालय में भी अक्सर राजेन्द्र माथुर, शरद जोशी
आदि के साथ चर्चा होती थी, जिनसे नई दुनिया का प्रगाढ़ रिश्ता
था। इन चर्चाओं ने मुझे उनका फैन बना दिया था। पत्रकारिता के तुरतफुरत के भाषिक और
प्रतिक्रियाशील व्यवहार को नयी ऊंचाई और दिशा देने में प्रभाष जी के योगदान को मैं
नमन करता हूं।
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