संस्मरण
-डॉ.अभिज्ञात
27 नवम्बर को 102वीं जयंती के अवसर पर विशेष
बच्चन की कविता का अवदान
हिन्दी की नयी कविता में बच्चन के योगदान की जितनी चर्चा
होनी चाहिए थी वह नहीं हुई.जबकि गीतात्मकता और छंद को छोड़कर नयी कविता के सारे आधार
वही थे, जो बच्चन की कविता के कविताओं के केन्द्रीय तत्व थे. नयी कविता,
जिसने भारतीय कविता के मूल स्वभाव को बदल दिया में अनुभूति की प्रामाणिकता
पर अधिक बल दिया गया और युग-सत्य और व्यक्ति सत्य के अन्तर्सम्बंध को सहज स्वीकार ही
नहीं किया गया बल्कि स्थापित भी किया गया.यहां युग की व्यंजना व्यक्ति द्वारा अनुभूत
थी.यहां व्यक्ति और समाज दोनों दो इकाइयां न थीं.अपने सहज उद्गारों को प्रकट करने के
लिए शास्त्रीय भाषा के बदले बोल-चाल की भाषा प्रचलन में आयी.हालांकि सुसंस्कृत भाषा
से इसका परहेज न था.सम्वेदन का जैसा विकास इस काव्य में है हिन्दी की दूसरी काव्य प्रवृत्तियों
में प्रायः नहीं दीख पड़ता.अनुभूति और सम्वेदना के साथ-साथ संगीत का एक आंतरिक पुट भी
विद्यमान है.यहां खोखले नारे न थे.उसके बजाय था-एक पराजय बोध, उसकी असहायता जो उसे अन्ततोगत्वा लघु मानव में परिणत कर देती है जो कहीं न
कहीं राजनैतिक मोहभंग और आदर्शवाद के खोखलेपन के कारणों से जुड़ा है.उसका सुख भविष्य
के प्रति सुस्वप्न बुनने के बजाय क्षण पर टिका है.सार्त्र का अस्तित्ववाद और क्षणवाद
इस काव्य की एक सीमा है और इस काव्य का सत्य भी लेकिन ऐसा नहीं है कि हिन्दी के आधुनिक
साहित्य में पहली बार यह हुआ है.इसके पहले छायावाद के अवसान-काल में महत्त्वपूर्ण कवि
डॉ.हरिवंशराय 'बच्चन' ने अपनी हालावादी
कविताओं में इसी अस्तित्ववादी-क्षणवादी अवधारणाओं की पुष्टि की.वहां भी असहायता,
निरुपायता और कुण्ठाएं थीं, जो उसके लघु मानव का
बोध कराती हैं और भविष्य के प्रति संशंकित दृष्टि से देखते हुए वर्तमान में ही लिप्त
हो जाने का संदेश देती हैं.यह अलग बात है कि इस ऐतिहासिक तथ्य की नयी कविता के परिप्रेक्ष्य
में चर्चा नहीं की गयी.वैसे डॉ.नगेन्द्र ने इसे वैयक्तिक कविता के परिप्रेक्ष्य में
बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल और गिरिजाकुमार माथुर आदि के गीतों
पर लिखते हुए रेखांकित किया है.(डॉ.नगेन्द्र, आधुनिक हिन्दी कविता
की मुख्य प्रवृत्तियां, 1979, पृष्ठ
68) और कहा है कि 'इनमें भारत का चार्वाक दर्शन और ईरान के उमर
खैय्याम के रंगीन क्षणवाद का भोगवादी जीवन-दर्शन सहानुभूति सहित मूल रूप में उपलब्ध
है! और इन सबका निखार बच्चन में प्राप्त है.इनमें व्याप्त व्यक्तिवाद, आध्यात्मिक नहीं है, भौतिक है.xxxइसका व्यक्तिवाद मान्य आस्थाओं के प्रति संदेह और विद्रोह
को लेकर चला है.उसके मूल में एक ओर सूक्ष्म आध्यात्मिक विश्वासों के प्रति संदेह और
दूसरी ओर नैतिक और सामाजिक विधान के प्रति विद्रोह का भाव है.अतएव आरम्भ में वह नकारात्मक
जीवन दर्शन को लेकर खड़ा हुआ है.बच्चन की कविता में संदेहवाद, भाग्यवाद या नियतिवाद और कहीं-कहीं तो
निषेधवाद तक मिलता है.' अंग्रेज़ी के कवियों लुई मैक्नीस,
स्पैंडर, आडन इत्यादि के प्रयासों से शुरू काव्यांदोलन
न्यू पोयट्री का प्रभाव भी नयी कविता ने ग्रहण किया. नयी कविता ने आंदोलन का रूप उस
समय ग्रहण किया जब 1954 में 'नयी कविता' का प्रकाशन हुआ और यहीं से नयी कविता और अज्ञेय की प्रयोगवादी कविता में अलगाव
का दावा किया जाने लगा।
'बच्चन'
ने दिया था मुझे 'अभिज्ञात' उपनाम
अपने गीतों से लोगों के
मन पर गहरी छाप छोड़ने वाले और मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश से जीते जी लिजेंड बन जाने वाले गीतकार डॉ.हरिवंशराय बच्चन
से मेरा उस उम्र में ही परिचय हो गया था जब मैं साहित्य की उनकी हैसियत को न तो समझ
सकता था और ना ही मेरी कोई अपनी पहचान ही थी.मुझमें बस साहित्य रचने की ललक थी और लिखना
सीख रहा था.अपने पिता से उनकी खूब चर्चा सुनी थी और उन्हीं से मिलते जुलते लहजे में
अपने पिता से 'मधुशाला' और 'मधुबाला' के गीत सुने थे.एकाएक बच्चन जी को पत्र लिखने
की सूझी और मुझे हैरत हुई कि उनका ज़वाब भी मिला.यह 1982-83 की बात है मैं उस समय संभवतः
कक्षा 11 वीं का छात्र था.फिर से उनसे पत्रों का सिलसिला चल निकला और पत्रव्यवहार का
सिलसिला चार-पांच साल तब तक चला जब तक उनकी हस्तलिपि वाले पत्र मुझे मिलते रहे जो सोपान,
नयी दिल्ली और प्रतीक्षा, मुंबई के पते से होते
थे और मुझे पहले तुमसर-महाराष्ट्र में और बाद में मेरे गांव कम्हरियां,आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के पते पर मिलते जब जहां मैं होता,
एकाध पत्र कोलकाता के उपनगर टीटागढ़ में भी मिले.कुछ दिनों बाद उनके
टाइप किये हुए पत्र आने लगे और वह ग्लैमर ख़त्म हो गया जो उनकी हस्तलिपि को समझने की
कोशिश से जुड़ा था और मेरी ज़िन्दगी में भी इतने बदलाव आये कि कई बार पुराने सम्पर्क
टूटे-बिखरे.उन दिनों मैं अपने दोस्तों का दिये गये उपनाम 'हृदय
बेमिसाल' के नाम से लिखता था और मैंने बच्चन जी से गुजारिश की
थी वे मुझे एक अच्छा सा उपनाम दें.और उन्होंने मुझे उपनाम दिया 'अभिज्ञात' साथ में यह भी लिखा था कि 'जब मेरा अभ्यास का लेखन ख़त्म हो जाये तो मैं अभिज्ञात उपनाम अपनाऊं.'
और मैंने यही किया नामकरण के अरसे बाद 1991 के आसपास जब मेरा पहला कविता
संग्रह 'एक अदहन हमारे अन्दर आया' तो मैंने
विधिवत साहित्य में 'अभिज्ञात' उपनाम को
अपनाया.इसके कुछ माह पूर्व ही मेरी कहानी 'बुझ्झन' का नाट्य रूपांतर भारतीय भाषा परिषद में किया गया था और पहली बार मैंने इस
नाम का इस्तेमाल किया था.वह पत्र दरअसल अब खोजने से भी नहीं मिल रहा है जिसमें उन्होंने
यह नाम मुझे दिया था.
पत्रों में युवा साहित्यकारोंके
विकास के सूत्र
बच्चन जी के कुछ ही पत्र
अब मेरे पास हैं.पहले मैं इस तरह के पत्रों के महत्त्व को भी नहीं समझता था और वे लापरवाही
से रखे जाते थे और एक शहर से दूसरे शहर जाने में कई चीज़ें पीछे छूटीं, नष्ट हुई और क्षतिग्रस्त हुई.कुछ हमेशा
के लिए खो गयीं तो कुछ के फिर से यकायक मिल जाने की उम्मीद बची है किताबों के मेरे
उस ढेर में जिससे लड़कर मैं कई बार हार जाता हूं.फिर भी यह सौभाग्य है कि उनके लगभग
दर्ज़न भर पत्र मेरे पास हैं जो किसी तरह महफूज़ रह गये हैं और एक तस्वीर भी जिस पर
उन्होंने यह लिखकर भेजा है कि 'मेरी असली तस्वीर मेरी रचनाओं
में है.'
इन पत्रों में किसी युवा
रचनाकार के लिए साहित्य की दुनिया में काम करने के लिए कुछ आवश्यक सूत्र हैं, जो मेरे लिए तो उपयोगी रहे ही युवा पीढ़ी
के तमाम लोगों के लिए भी वे प्रासंगिक हैं.मसलन रचनाएं लौट आयें तो उसे अपनी रचनात्मक
ग़लती समझें सम्पादक की नहीं, अस्वीकृत होती रचनाओं से हताश न
हों, आपका काम ही आपकी सिफारिश होगा, आपको
मौका देने के लिए कोई आपको मौका नहीं देगा बल्कि अपनी सफलता के लिए देगा, लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े, जो
भी काम करें उसमें पूर्णतया अपने को लगा दें, लेखन के लिए ज़रूरी
है मुक्त जीवन अनुभव, व्यापक स्वाध्याय, सतत अभ्यास और सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों का सत्संग जिससे उसके सर्जक का विकास
होगा, आदि.
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