-डॉ.अभिज्ञात
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कोलकाता के सुपरिचित कवि जय प्रकाश खत्री उर्फ
नवल जी ने 24 अप्रैल 2020 को अपनी अंतिम सांस ली। अगले माह वे अस्सी के जाते। नवल जी
पश्चिम बंगाल की दुनिया में एक सांस्कृतिक सेतु थे। अप्रस्तुत, नवागत,
स्वर समवेत, प्रतिध्वनि आदि साहित्यिक मंचों व
अपूर्वा, स्वर सामरथ, साहित्य बुलेटिन,
काव्यम् आदि पत्रिकाओं के मूल स्वप्नद्रष्टाओं में से थे। विभिन्न साहित्यकारों
की लगभग तीन सौ पुस्तकों का प्रकाशन उनसे प्रयासों से हुआ था। उनके छह कविता संग्रह
प्रकाशित हैं।
सन्मार्ग में एक साहित्यिक पृष्ठ के सम्पादन
का दायित्व मुझे मिला तो मेरी योजनाओं में एक ऐसा स्तम्भ भी था जिसमें कोलकाता से जुड़े
साहित्यकारों के व्यक्तित्व व लेखन तथा योगदान की चर्चा हो। स्तम्भ का नाम तय किया
'वे दिन वे लोग'। इसके लिए उपयुक्त जो पहला नाम मेरे जेहन
में कौंधा वह था नवल जी का। नवल जी से तीन दशक से खट्टे मीठे सम्बंध रहे। वे लेक गार्डेन्स
में रहते थे। जहां डॉ.इलारानी सिंह रहती थीं। इला जी के निर्देशन में मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय
से पीएच.डी कर रहा था। इस सिलसिले में अक्सर लेक गार्डेंस जाना होता था। मेरी साहित्यिक
दिलचस्पी को देखते हुए उन्होंने बताया कि पास ही में कवि नवल जी और दूरदर्शन की हिन्दी
कार्यक्रम प्रभारी सुशील गुप्त रहती हैं। फिर एक दिन मैं इलाजी के साथ नवल जी के घर
भी पहुंच गया। यह मेरी पहली मुलाकात थी लेकिन उसके बाद कई मौके आये जब हम साथ थे। एक
बार तो मेरी पत्नी प्रतिभा सिंह से भी वे मिले थे और आशीर्वाद दिया था। प्रतिभा अग्रवाल
जी के प्रोत्साहन से कोलकाता नामक वार्षिक संग्रह के लिए भी नवल जी ने मेरी कविताएं
ली थीं।
पंडित भीमसेन जोशी से जुड़े एक कार्यक्रम में
मैंने नवल जी को देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि वहां हिन्दी साहित्य से जुड़ा कोई
व्यक्ति नहीं था। तब मुझे पता चला कि वे विविध कलाओं से जुड़ी हस्तियों से वे जुड़े
हुए हैं। चाहे श्यामानंद जालान हों या अन्य। चेतना जालान ने तो उनकी कविताओं पर 'अग्नि' नामक नृत्य नाटिका तैयार की थी। बिड़ला मंदिर प्रेक्षाग्रह में उसकी प्रस्तुति
मैंने देखी थी। वह किसी भी कवि के लिए गौरवशाली प्रस्तुति थी। उनकी हैंडराइटिंग बेहद
खूबसूरत थी। और कविताओं में संगीत व सौंदर्य था। वे स्वप्नद्रष्टा थे। बड़ी योजनाओं
को सलीके से अंजाम देने में पारंगत थे। वे स्वयं एक संस्थान थे, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं। नवल जी ने एक ऐसा कार्यक्रम शुरू किया था, जिसमें कोई कवि एकल काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया जाता था, फिर रचनापाठ के बाद उस पर चर्चा भी होती थी। उसमें उन्होंने मुझे भी बुलाया
था।
मैं नब्बे के दशक में कोलकाता आया था। उन दिनों
चांदनी मेट्रो स्टेशन के पास उदिपि दक्षिण भारतीय रेस्त्रां के आसपास लेखकों का हर
शनिवार को जमावड़ा लगता था। वहां कई बार नवल जी से मुलाकात होती। नवल जी आलोचक श्रीनिवास
शर्मा जी और कथाकार कपिल आर्य जी के साथ पंजाब नेशनल बैंक में कार्यरत थे।
जब मैं अमर उजाला में पंजाब चला गया तो जालंधर
एक साहित्य बुलेटिन भेजते थे, जिसमें वहां की सांस्कृतिक गतिविधियों
की चर्चा रहती। जब मैं वेबदुनिया इंदौर और
दैनिक जागरण जमशेदपुर में था तब भी उनसे सम्पर्क बना रहा। फिर कोलकाता में मेरी वापसी
के बाद तो मुलाकातें और बढ़ गयीं। डॉ.विजय बहादुर सिंह जब भारतीय भाषा परिषद में निदेशक
बन कर आये तो उनसे मित्रता के कारण मैं अक्सर परिषद पहुंच जाता और सुखद था कि वे नवल
जी के भी प्रिय थे। सो उनसे भी मुलाकातें बढ़ीं।
मुझे पता था कि वे हिन्दी के तमाम संस्कृतिकर्मियों
से बेतरह जुड़े हुए हैं सो उनसे मैंने सन्मार्ग में वे दिन वे लोग लिखने का प्रस्ताव
दिया। और लम्बी जिरह के बाद वे तैयार हुए। यह काम इसलिए भी बड़ा था क्योंकि अनिवार्यतः
हर सप्ताह लिखना था। इन लेखों के लिए मैं अक्सर उन्हें परेशान करता। सप्ताह में दो-दो
तीन-तीन दिन लम्बी बातें होतीं। क्या ठीक बना क्या और जोड़ना है वक्त पर देना है आदि- आदि।
कई बार मैं कटु भी हो जाता तो वे मना लेते। मैं उनसे बार-बार कहता दूसरों पर जो लेख
लिख रहे हैं, उसमें आप स्वयं कम से कम रहिए दूसरे पर फोकस करिए।
केवल उतने भर से काम नहीं चलेगा कि आप अमुक से कब-कब मिले और आपके बारे में उनसे क्या
बातें हुईं, बल्कि उनके जीवन के विविध पहलुओं को उजागर करने पर
जोर दीजिए। वे दिन वे लोग के केन्द्र में वह होना चाहिए जिस पर लेख लिखा जा रहा है।
उनके लेखों में उन लोगों के जीवन की बातों के तथ्य कम होते तो हमारे बीच टकराव की स्थिति
बन जाती। मुझे उन्हें बड़े धैर्य से समझाना पड़ता कि यह आपकी आत्मकथा नहीं है,
क्योंकि यह प्रकारान्तर में उन्हीं की आत्मकथा बनती जा रही थी। मैंने
कहा था आप अपने मूल लेख में वे बातें रहने दीजिए बेशक आप अपनी आत्मकथा के तौर पर उन्हें
प्रकाशित कर लीजिएगा लेकिन मुझे सम्पादन में वह छूट मिलनी चाहिए कि मैं उन हिस्सों
को काट दूं जिसमें आपने लिखा हो कि आप अंग्रेजी साहित्य के आदमी हैं या आपकी पत्नी
हिन्दी से एमए हैं आदि आदि। मुझे नहीं मालूम था कि वे बस कुछ ही दिनों के मेहमान हैं।
कई बार तो मैं जिस पर लिखने को कहता वे किसी दूसरे पर लिखने का मन बना चुके होते। कई
बार विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने लिखा। वे मोबाइल फोन पर लिखते। कई बार तो ऐसा
हुआ कि लिखा हुआ उड़ गया और उन्हें फिर टाइप करना पड़ा। मेरी बेटी ने जब मुझे आईपैड
दिया तो मेरे फेसबुक पेज पर उसकी तस्वीर देखकर उन्होंने कहा- अभिज्ञात मैं एक दिन तुम्हारे
यहां अपना एटीएम कार्ड लेकर आ जाता हूं तुम चलो और मुझे खरीद दो। फिर मुझे चलाना भी
सिखा देना। और मेरा ईमेल आईडी भी बना देना और ईमेल करना भी सिखा देना। वे बाद के दिनों
में मुझे परिहास में गुरुजी कहने लगे थे। हमारा रिश्ता बेतकल्लुफ था। वे मेरे लिए सदैव
भाई साहब भी रहे और मैं उनके लिए दोस्त। इस बीच वे मेरे कार्यालय में मेरा नया कविता
संग्रह कुछ दुख कुछ चुप्पियां लेने के लिए आने वाले थे। कई बार कहने के बाद वे 13 मार्च
को मेरे प्रिय दिवंगत मित्र व फिल्मकार कवि हृदयेश पाण्डेय पर उन्होंने सन्मार्ग के
लिए लेख दिया था। वे हृदयेश पर लिखने में विलम्ब कर रहे थे तो मैं नाराज था। खैर लॉकडाउन
के कारण सन्मार्ग के साहित्यिक पन्नों के प्रकाशन में कुछ कमी की गयी, जिसके कारण वह साहित्यिक पेज अभी तक नहीं प्रकाशित हुआ और वह लेख नहीं छप पाया।
वे दिन वे लोग की कड़ी में अब वह उनका अंतिम लेख होगा। वे दिन वे लोग के सारे लेख स्मृति
लेख हैं। इन लेखों के बारे में उनकी योजना की थी पुस्तकाकार प्रकाशित होंगे। उन्होंने
इस तरह के लेख पहले भी अन्य अखबारों में अन्य लोगों पर लिखे थे। अब यह उनके उत्तराधिकारियों
की जिम्मेदारी बनती है कि उनके लेख व्यवस्थित रूप से प्रकाशित हो जायें। वे रह-रह कर
कहते अभिज्ञात श्यामानंद जालान पर लिख दूं..कला के क्षेत्रों के लोगों से जुड़ी स्मृतियों
का खजाना उनके पास था, पर मुझे पता नहीं था कि वे अपना खजाना
लिये चले जायेंगे।
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