वे हंसती थीं तो किसी को यकीं ही नहीं होता था कि उनके जीवन में दुःख का कोई
साया भी पड़ा होगा. चमकते दांत, नीली व भूरी कंचई आंखें, मुझे अब भी याद है. उनकी सुंदरता और विद्वता की चर्चा
मैंने एक साथ सुनी और देखी थी. इसलिए जब मुझे पता चला था कि उन्हें कैंसर है और इलाज के
बाद तमाम अस्पतालों में कोशिश के बाद थक हार कर जब उन्हें फिर उनके पिता के घर कोलकातालाए
जाने की खबर मिली, तो भी मैं उनके यहां जाने का साहस नहीं जुटा पाया. इसलिए अंतिम यातनास्पद हालातों
से मैं अछूता ही रहा. जो मेरे लिए कम यातनास्पद अब नहीं रह गया है. एक मरते हुए व्यक्ति से मिलने
से पयायन मुझे जब तक सालता रहता है.
डॉक्टर इलारानी सिंह ने डबल डीलिट किया था. कोलकाता के जयपुरिया कालेज में रीडर थीं. कोलकाताविश्वविद्यालय में मेरे
पीएचडी की गाइड . लेकिन इतना भर ही तो नहीं था. वे स्वयं कवि और आलोचक थीं. उनकी कविताओं की पुस्तक वात्या' पर मैंने अपने जीवन की पहली समीक्षा
लिखी थी. लेखन
को लेकर उनसे लगातार फटकार सुनना रहा, प्रशंसा कम. वे चलताऊ लेखन को कभी पसंद नहीं
करती थीं. अखबारी
लेखन उनकी दृष्टि में हमेशा ही हीन रहा. वे निरंतर शाश्वत मुद्दों और चुनौतीपूर्ण
लेखन के लिए न सिर्फ प्रेरित करती रहीं, बल्कि अपने लिए भी उन्होंने यही रास्ता
चुना था. शिलाखंड
राउलवेल' पर लिखी
इबारतों पर उनका विश्लेषणात्मक ग्रंथ इस बात का प्रमाण है कि वे किस तरह के गंभीर व
चुनौती पूर्ण विषयों से जूझती रही थीं. कवि मुक्तिबोध' पुस्तक कंपोज हो रही थी, उन्हीं दिनों में उनके संपर्क
में आया था. अपने
लिखे को भी बार-बार वे इस लिहाज से देखती थीं कि संशोधन की गुंजाइश तो नहीं? अंधेरे में' कविता की व्याख्या लिखने के बाद
भी उसमें और पुख्तापन लाने के लिए कविता का सैकड़ों बार पाठ करते मैंने उन्हें देखा. वे लगातार अपने लिखे में एक नई
कौंध का इंतजार करते हुए दिखी थीं. लिखना उनके लिए एक बेचैनी से गुजरना ही
था. कविताएं
लिखते समय तो उन्हें एकदम एकांत चाहिए होता था. मेरी तरह नहीं कि भीड़ भरी ट्रेन में लिख
मारा. और कहीं
नहीं जगह मिल और मूड जम गया तो रेलवे स्टेशन की की गंदी सीढ़ियों पर अखबार बिछा कर बैठ
गए और लिख लिया, वरना लिखा टल गया तो फिर गया. सियालदह स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठ मैंने
कितनी ही कविताओं को लिखा है. टीटागढ़ से लोकल ट्रेन पकड़ सियालदह आने के क्रम मेंअक्सर
इतनी भीड़ का सामना करना पड़ता कि कई बार सांस लेने के लिए भी गुंजाइश निकालनी पड़ती. चारों तरफ से लोगों के बीच दबे
हुए अक्सर मन कहीं और दौड़ाना, किन्हीं स्मृतियों में अपने को डुबो देने का निरंतर प्रयास
मैं करता जिससे की उस कष्ट को मैं भूल सकूं. और इसी क्रम में कई रचनाएं उपजीं. लेकिन यह गुंजाइश कतई नहीं होती
थी कि मैं अपना हाथ अपनी जेब तक ले जाकर पेन निकाल सकूं. कागज पर कुछ लिख पाने की तो खैर कल्पना तक व्यर्थ थी. सो जैसे ही सियालदह ट्रेन से
उतरता उस व्यस्ततम स्टेशन पर कहीं बैठने की जगह मिलना लगभग नामुमकिन होता था सो स्टेशन
की सीढ़ियों पर बैठकर ट्रेन में सोचे गए को याद कर लिखनी की कोशिश मैं करता कई बार सफल
भी हो जाता. कई बार
बात जेहन से निकल जाती या अधूरी ही याद पड़ती.
धीरे-धीरे में
अपनी रचनाओं के कारण ही उनके करीब होता गया. अक्सर उनके घर आना-जाना होता. उनकी पारिवारिक जिंदगी से भी
वाकिफ होता चला गया. उनके पति भागलपुर विश्वविद्यालय में मैथिली के रीडर हैें. कोलकाता के जालान गर्ल्स कॉलेज
में शादी के पहले पढ़ाती थीं. शादी के बाद पति के साथ रहने के उपक्रम में वे भागलपुर
चली गई. विभागों
के फ़र्क के बावजूद एक ही जगह अध्यापन शुरू किया था. मगर दोनों की अनबन ऐसी हुई कि वे अपने
पिता के यहां कोलकाता लौट आई थीं. साथ उनकी संतानें दो बेटे और एक बेटी भी थी. उन दिनों एक दिल्ली में पढ़ रहा
था, एक सिंधिया
कॉलेज, ग्वालियर
में. बेटी
थी, साथ. बाद में पति उन्हें वापस लेने
भी आए थे मगर वे स्वाभिमान व जिद में फिर लौटी नहीं ही लौटीं. तलाक भी नहीं दिया. उनकी बंगाली सौतेली मां डॉक्टर
अणिमा सिंह लेडी ब्रेबार्न कालेज प्रोफेसर तथा पिता डॉक्टर प्रबोध नारायण सिंह कोलकाताविश्वविद्यालय
में प्रोफेसर थे. उनके घर पर हिन्दी, मैथिली और बांग्ला विद्वानों का जमघट
ही लगा रहता था. मुझे वहां चाहे-अनचाहे बहुत कुछ सीखने को मिला. जिस चित्रकार गणेश पाइन को मैं
ग्रेस सिनेमा के पीछे एक चायखाने (विभूति केबिन) में दूर-दूर से देखा करता था, उनसे मेरा प्रत्यक्ष परिचय कराया
था. बाद में
तो मैं अक्सर उनकी अड्डेबाजियों में शामिल हो गया था. जहां युवा चित्रकार विमल कुंडू
भी आता था बाकी कवि आलोचक ही थे. और जहां मैंने उन लोगों का बांग्ला साहित्य, कला और फिल्मों में उत्तर-आधुनिकता के आंदोलन का स्वरूप निर्धारित करते हुए पाया. हिन्दी में तो बाद में सुधीश
पचौरी आदि के लेखों में उत्तर आधुनिकता की चर्चा पढ़ने में आई थी. गणेश पाइन ने ही इला जी की कवि
मुक्तिबोध' पुस्तक
का आवरण चित्र बनाया था. और मेरी पहली पुस्तक का कवर बनाने का वादा भी किया था.
चूंकि उनके यहां मैथिली, बांग्ला और अंग्रेजी तीनों बोली जाती थी सो थोड़ी बहुत मैथिली
मैंने भी सहज ही सीख ली तो कोई हैरत नहीं. इला जी ने सागर विश्वविद्यालय से एमए
किया था, जहां
उन्होंने आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉक्टर शिवकुमार मि जैसों से रचना दृष्टि
पाई थी और बाद में अपने गुरओं की स्नेह -भाजन रहीं. संभवतः दो भिन्न दिशाओं के गुरूओं
के कारण ही उनके रचना-संस्कार में प्रगतिशीलता और परंपरावाद का मिण मिलता है. उन्होंने जो कछ मुझे दिया वह
ये कि किसी से आक्रांत न होने का माद्दा. चुनौती को स्वीकार करने की आदत, जिसकी तो प्रतिमूर्ति ही थीं.
लिखने में लापरवाही के लिए सुनी फटकारों के बाद मुझे बाकायदा रोते हुए उनके
घर वालों ने भी देखा और मेरे साथ उनके निर्देशन में काम करने वाले अन्यशोधार्थियों
ने भी. आखिर
कभी न कभी उनकी भी बारी आई ही. अच्छे मूड में हों ता वे जितनी मीठी थीं, नाराज़ होने पर उतनी ही कटु . लापरवाही की वज़ह से मेरे हिस्से
उनकी फटकारें बहुत आई थीं. एक ओर भाषा विज्ञान और भाषा पर उनका आधिकारिक ज्ञान था. दूसरी ओर साड़ियों, चूड़ियों साज शृंगार की चीजों
के प्रति स्त्रीयोचित ललक. खाने की बेहद शौकीन. हर रविवार को बड़ाबाजार थाने के पास स्थित
हनुमान मंदिर टेंपल स्ट्रट पुस्तकालय में वे
तथा कई और कॉलेजों के प्राध्यापक आकर निःशुल्क हिन्दी की शिक्षा देते थे. वहीं वे तथा उनके पिता डॉक्टर
प्रबोध नारायण सिंह अपने शोधछात्रों का भी मार्गदर्शन करते थे. वहां साहित्यिक कार्यक्रमों का
भी आयोजन भी, उनकी
प्रेरणा व प्रयास से होते रहते थे. उन्हीं के कहने पर मैं जनवादी लेखक संघ
से भी जुड़ा, वरना
साहित्य और कला जैसे विषयों में संघबध्दता पर मेरा बहुत यक़ीन आज भी नहीं है. यह बात दीगर है कि एक वर्ष बाद
ही जनवादी लेखक संघ ने मेरा वार्षिक चंदा 5 रपए स्वीकार नहीं किया अर्थात मैं जलेस
द्वारा खारिज कर दिया गया था. हालांकि बाद में जलेस के कई कार्यक्रमों में मुझे रचनापाठ
के लिए न्योता गया. और माकपा के साप्ताहिक मुखपत्र स्वाधीनता' के शारदीय विशेषांक में दो बार
कविताएं भी प्रकाशित हुईं. जहां काव्य-पाठ के दौरान लीकर(बिना दूध की काली चाय) मिलता. मेरे लिए शुरू शुरू में यह माहौल
अजीब सा लगता था. मैंने जिस माहौल में होश संभाला था वहां कवियों के लिए भी साधारण
चमक-दमक थी. आठवीं कक्षा में जब मैं पढ़ता
था, गोंदिया
अखिल भारतीय -कवि सम्मेलन
में मैंने काव्य-पाठ किया था. मैंने हाफ पैंट पहन रखी थी. और उस समय मुझे 15 रपए पारिमिक भी मिला था. तो जब मैं जनवादियों के संपर्क
में आया तो मुझे पता चला तमाम विख्यात साहित्यकारों की सभाओं में भी प्रायः माइक नहीं
होता और ना ही प्रकाश की समुचित व्यवस्था थी. किसी भग्न प्रायः स्कूल के कमरे में कार्यक्रम
आयोजित होता जिसमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्य सभा की सदस्या सरला माहेश्वरी
और चंद्रा पांडेय भी होतीं और आलोचक डॉ शंभुनाथ, कोलकाता में राजेंद्र यादव के जिगरी दोस्त
रहे अवधनारायण सिंह, प्रेसिडेंसी कॉलेज के प्रोफेसर डॉ सुब्रत लाहिड़ी, विमल वर्मा, धुव्रदेव मि पाषाण और इसराइल
भी. वे सकलदीप
सिंह भी, जो हमेशा
इस बात का विरोध करते कि लेखकों पर पार्टी अपने निर्देश न थोपे. साहित्य को कामरेड दिशा निर्देश
करेंगे तो इससे साहित्य का अहित होगा. केवल लाल सलाम' लिखने से कोई अच्छा प्रतिबध्द
लेखक नहीं हो सकता. उन दिनों पाषाण और श्रीहर्ष की कविताओं में लाल सलाम' कहीं न कहीं से जरूर आ जाता. यहीं पहली बार उन शब्दों से परिचय
हुआ, जो वर्गीय
विभाजन से जुड़े हैं. बुर्जुआ, सर्वहारा, दक्षिणपंथी जैसे शब्द इनके वक्तव्यों
में बार-बार आते. यहां बीड़ी पीते लेखकों की कमी
न थी, जो दूसरे
की परवाह किए बिना पीते रहते. और कुछ ऐसे लोग भी होते जो देसी शराब के नशे में धुत होते. मैं धीरे-धीरे इस माहौल का अभ्यस्त हो
गया.
वे सकलदीप सिंह मेरे दोस्त हो गए, जो कभी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर
थे. और बाद
में पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. जो साठोत्तरी काव्यांदोलनों के समय श्मशानी
पीढ़ी का नेतृत्व करने वालों में से एक थे और जिन्हें निषेध के कवि के तौर पर डॉ ज़गदीश
चतुर्वेदी ने अपने साथ शामिल किया था.
वे इलाहाबाद विश्वविदयालय से अंग्रेजी तथा हिन्दी में एमए करके कोलकाता आए
थे. नेशनल
लाइब्रेरी के नियमित पाठकों में से एक. 76 की उम्र में भी वे कोलकाता से अपने गांव
नहीं लौट पा रहे हैं तो उसमें एक कारण किताबें भी हैं. वह छपरा जिले के गांव में कहां
मिलेंगी. सकलदीप
जी ने पाश्चात्य और आधुनिक साहित्य का खूब मनन और अध्ययन किया है. और वे नियमित लिख्खाड भी रहे
हैं. मेरा
खयाल है उनकी पचास डायरियां उनकी कविताओं से भरी होंगी. एक बार जो लिख दिया सो लिख दिया. उनकी कविता में कम से कम अपने
द्वारा किया गया संशोधन नहीं मिलेगा. अलबत्ता पुस्तक निकालते समय जरूर अवध
नारायण सिंह ने कहीं कुछ संशोधन किया होगा तो होगा. उनके बाद दूसरा शख्स मैं बना काफी दिनों
बाद जिसे उनकी कविताओं में मनचाहा परिवर्तन की इजाजत थी. बाद में तो वे कई लोगों से कहते
भी सुने गए कि अभिज्ञात के बिना मैं अधूरा महसूस करता हूं. वे कोलकाता छोड़ने के कुछ पहले
वे कुछ मामलों में मुझ पर काफी यकीन करने लगे थे. उन्हें यह पसंद नहीं था कि उनकी पुस्तक
पर भूमिका रहे. पर पहली बार ऐसा हुआ था. मैंने उनकी ईश्वर को सिरजते हुए' काव्य पुस्तक की भूमिका लिखी. अपनी एक पुस्तक तो उन्होंने मुझे
ही समर्पित की है. भूमिकाएं लिखने का अवसर मुझे कई बार हाथ लगा है. पहली बार रवींद्र कुमार सिंह
की पुस्तक सरकारी लाश' की भूमिका मैंने लिखी थी. और जिसे मैं अहम मानता हूं वह हैर् कीत्ति
नारायण मिश्र की विराट वट वृक्ष के प्रतिवाद में' की भूमिका. यूं अमृतसर में अमर उजाला में
सहकर्मी और दोस्त हरिहर रघुवंशी के पहले कहानी संग्रह की भूमिका भी मैंने लिखी. पर सबसे अवसाद भरी भूमिका लिखनी
पड़ी थी मुझे अमित राजोरिया की सरायखाना' की. सरायखाना 16-17 वर्षीय उस अमित की कविताओं का
संग्रह है जो उसकी आकस्मिक मृत्यु के बाद छपी. अमित कपडा व्यापारी का बेटा था, जो मेरे दोस्त थे. उनका साहित्य से कोई सरोकार नहीं
था. जब भी
मैं उनके यहां जाता अमित मुझसे तरह तरह के सवाल पूछता और एक दिन उसने बताया कि वह भी
कविताएं लिखता है. उसकी दो एक पत्रिकाओं में कविताएं अभी प्रकाशित ही हुई थी. बीमारी से उसकी आकस्मिक मौत के
बाद उसके पिता प्रकाश राजोरिया ने उसकी कविताओं की डायरी मुझे दी थी और कहा था क्या
इसे प्रकाशित किया जाना चाहिए. मैं यह देखकर रो पड़ा था कि उसकी कविताओं की डायरी के कुछ
सफे ऐेसे थे, जिसमें
एक तरफ मेरी कविताएं उसने लिख रखी थी दूसरी ओर अपनी. एकदम आमने-सामने के पृष्ठों पर. मैं नहीं जानता कि मैं उसका आदर्श
था या प्रतिद्वंद्वी. पर मैं यह जानता हूं कि कला के क्षेत्र में जो हमारे आदर्श पुरष
होते हैं, वही हमारे
प्रतिद्वंद्वी होते हैं. कितनी निष्ठुर होती है कला जगत की सचाइयां की हम जिसे चाहते हैं
उसी को तोड़ते हैं. अपने सबसे प्रिय की कलात्मकता को तोड़े बिना कोई कलाकार आगे नहीं
बढ़ सकता. अमित
होता तो वह मुझे आज कहीं न कहीं नकारने की तैयारी कर रहा होता. मुझे भी समय लगा है अपने प्रिय
कवि केदारनाथ सिंह के जादू से मुक्त होने में. और उनने भी अपने काव्य गुर त्रिलोचन से
मुक्ति पाकर ही अपनी राह तलाश ली.
इला जी मुक्तिबोध को लेकर किताब लिखती रहीं. पर जब तक वह किताब प्रकाशित होकर आती, मैं मुक्तिबोध के बारे में अपने
गुर से स्वतंत्र राय कायम कर चुका था. शायद यह इला जी ही थीं, जिनकी वजह से मैंने मुक्तिबोध
की रचनाओं की करणा से परिचित हो सका.
इला जी से मिलकर मुझ में यह तो हुआ कि मैं साहित्य के गंभीर सरोकारों से जुड़ा
मगर पूरी तौर पर शाश्वतता के हवाले अपने-आपको न कर सका. उसकी कुछ और वजहें भी थीं. मेरे नानाजी केंद्र सरकार की
जूट मिलों में ठेकेदार थे. उनके काम में भी मुझे हाथ बंटाना पड़ता था. जो कि एक नीरस दुनिया थी. साहित्य ही वह झरोखा था, जहां से मैं एक दूसरी दुनिया
में जा सकता था जो मुझे राहत देती. फिर मैं जनसत्ता' अखबार से बतौर स्ट्रींगर जुड़
गया और समय कम पड़ने लगा. अखबार से जुड़ना मेरी गुरू को कतई पसंद नहीं था. समय के अभाव में मिलना -जुलना कम होने लगा. शोध का कार्य तो मेरा चलता रहा
था. पब्लिक
सेमिनार में परीक्षकों में कई दिग्गज थे. आचार्य विष्णुकांत शास्त्री भी थे, जो अब उत्तर प्रदेश के राज्य
पाल हैं. डॉ चंद्रा
पाण्डेय थीं जो माकपा की राज्य सभी की सदस्य हैं. डॉ शंभुनाथ पीएचडी कमेटी के कन्वेनर थे. चंद्रा जी ने उस सेमिनार में
माना था कि शोध में बेहद मौलिकता है. दूसरों के हवाले कम दिए गए हैं. लेकिन इस तरह के काम को प्रोत्साहित
करने की आवश्यकता है,क्योंकि यह परंपरागत शोध कार्यों से अधिक महत्व का है. अब मुझे थीसिस जमा करनी थी.
इधर स्वयंभू भगवान बालक ब्रह्मचारी की निर्विकल्प समाधि प्रकारण राज्य में
चर्चा के केंद्र में था. उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्य कह रहे थे कि उनके शव की अंतिम
क्रिया नहीं की जाएगीक्योंकि वे वापस लौटेंगे. वे भगवान हैं. उनका शव 54 दिन तक सुरक्षित रखा गया था. जिसका सरकार ने अंततः जबरन अंतिम
संस्कार किया. इसकी
कवरेज का जिम्मा मेरे ऊपर था. सो मेरे पास अवकाश इतना नहीं था कि मैं शोध कार्य के लिए
उनसे मिलता. फिर भी
किसी तरह पहुंच तो पता चला कि गलतफहमियों की एक दीवार हमारे बीच खड़ी हो चुकी थी.
किसी ने उनके कानभर दिए थे. उनका कहना था कि मैं तो किसी और के अधीन
शोधकार्य शुरू कर रहा हूं. और यह भी कि मैं कहता फिरता हूं कि मैं उनसे बड़ा लेखक हूं. वे मेरी बातें सुनने को तैयार
नहीं थीं. मैं रोते
हुए लौट आया था. और जबकि मेरी थिसिस जमा करने के कुल पांच दिन बचे थे, बालक ब्रह्मचारी की सड़ी हुई लाश
निकालने के लिए पश्चिम बंगाल की पुलिस ने व्यापक तैयारी के साथ आपरेशन सत्कार किया
था. मैं एक्सक्लूसिव
कवरेज के चक्कर में पुलिस की लाठियों से बेतरह जख्मी हो, हाथ पैर तुड़वाए डेढ़ महीने तक
बिस्तर पर पड़ा रहा. मगर उनकी ओर से समाचार नहीं पूछे जाने की यंत्रणा अधिक दुखदायी
रही. महीनों
बाद फ़ोन किया तो उनकी बेटी ने बताया कि उन्हें कैंसर है. इलाज के लिए दिल्ली गईं है. फिर फोन किया तो पता चला घर वाले
नाउम्मीद हैं. साहस
जुटा रहा था कि कैसे उनका सामना करूं. अपनी नाराज गुर से ऐसे मकाम पर मिलने
से मैं दो एक दिन कतराए रहा. इसी बीच उनके देहावसान की सूचना मिली. मैं दुखी शर्मसार किस मुंह से
उनके घर जाता. उनके
बद्राों और मां बाप से मिलने.
मैंने जो अपराध किए ही नहीं उसकी सजा तो मैं काट ही रहा था. जिनसे बहुत कुछ पाया, उनकी निगाह में ता-उम्र अपराधी बना रहा. और अब तो यह गुनाह है ही कि उनके
अंतिम दर्शन भी नहीं किए. कहीं न कहीं मन में खौफ था मुझे- वे मुझे अपराधी मानती ही हैं. जाने चला-चली की बेला में मुझे क्या कहें. ज़िन्दगी भर उनका कहा पीछा करेगा.
यह मेरा निहायत निजी सुख है कि मुझे उनके जाने का यक़ीन नहीं होता. जब वे थीं, उनसे मेरी सुलह करवाने का वादा
किया था हृदयेश पांडेय ने, जो उनसे पहले ही दुनिया छोड़ गए. वे अगर होते तो शायद वह नहीं होता जो
मैं अभी हूं. वे दक्षिण
भारत की हिन्दी फिल्मों में लिखते थे. कहानियां पटकथाएं. मेरे साथी बन गए थे. कवि सम्मेलनों में हम कई बार
साथ रहे. उन्होंने
योजना बनाई थी साथ मिलकर लिखने की. जो अधूरी रह गई.
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