डॉ.अभिज्ञात
पचीस साल बीते पर लोग हैं कि वही-वही सुनना चाहते हैं - एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
/ जाने
किस मछली में बंधन की चाह हो.' यह लगाव यूं ही नहीं होता किसी को किसी खास रचना से. यह पूरे ढर्रे को चुनौती देने
वाली रचना है. आत्मीयता, जिसकी तलाश हर किसी को होती है. आत्मीयता ही तो वह शर्त हो सकती
है, जो किसी
मछली में बंधन तक की चाह पैदा करे. प्रवृत्ति के विरध्द जाकर. आत्मीयता की यह कल्पना भर नहीं
है, यह आत्मीयता
का दावा है. जिसने
अपने जीवन में जाना है, बरता है उसी की रचना में यह विश्वास अपनी पूरी गरिमा के साथ उपस्थित
हो सकता है. यह कविता
डॉक्टर बुध्दिनाथ मिश्र से उनकी सुरीली आवाज और हल्की मोहक मुस्कान के साथ कई बार ोताओं
के बीच और कई बार उनके साथ बतौर आमंत्रित कवि के मंच पर बैठ सुनी है. हर बार यह नया असर पैदा करने
वाली साबित हुई है. जी में आया है कि क्या सुनाएं. अब उन्हीं को सुनते रहा जाए. वे मंच की दुनिया के बाहर और
भी धनी हैं, अपने
व्यक्तित्व के. बरसों से उन्हें सुनता आया था, मगर- दूर-दूर रहा. एकाएक मौका हाथ लगा था नज़दीक
पहुंचने का. बिरलापुर
जूट मिल की ओर से बिरलापुर में आयोजित एक कवि-सम्मेलन में मुझे रिपोर्टिंग के लिए जाने
का असाइनमेंट जनसत्ता ने दिया था. उसमें उल्लेखनीय लोग थे - ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त बांग्ला
लेखक सुभाष मुखोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय और उर्दू की मशहूर शायरा रेहना नवाब, चंद्रदेव सिंह तथा बुध्दिनाथ. वहां सुभाष दा से सत्यजीत राय
के संस्मरण सुनना एक अलग अनुभव था. सुभाष दा का कहाना था सत्यजित राय ने
मामूली दिखने वाली लड़कियों को फिल्मों में अवसर क्या दिया, घर की नौकरानियों तक में आत्मविश्वास
जग गया कि वे भी फिल्मों में हिरोइन बन सकती हैं. वे अधिक ही बनने संवरने लगी थीं और ब्यूटी
पार्लर में जाने लगी थीं.
यहीं पता चला था कि सुनील दा बाकायदा गीत लिखते भी हैं. बुध्दिनाथ से उनके पुराने ताल्लुक
थे. उन्होंने
इन दोनों से मेरा परिचय कराया. वहां काव्यपाठ में मुझे नहीं बुलाया गया था, सो मैं कविता पढ़ने को तैयार न
हुआ था. मैं पत्रकार
की ही भूमिका में रहा. लौटते समय रात हो चली थी. सुनील दा और सुभाष दा दोनों अपने यहां
रातभर रहने का प्रस्ताव देते रहे मगर मैंने बुध्दीनाथ के यहां रात में ठहरना पसंद किया. उतनी रात को बस चालक अकेले मुझे
लेकर टीटागढ़ जाने को तैयार नहीं हुआ था, क्योंकि उसे बिरलापुर लौटना भी था. जादवपुरके एक ओनरशिप फ्लैट में
वे अपनी भरे पूरे-परिवार के साथ थे. वे एक चहेते पति और दुलारे पापा थे. उनका यह रूप मुग्धकारी ही लगा. सुबह नाश्ता आदि करके जब मैं
चलने को हुआ तो उन्होंने कुछ रपए थमाने चाहे
रिक्शा व ट्रेन के किराए के लिए. बाद में फोन पर बातचीत के दौरान उन्होंने पूछा कि मंच पर
मैं कविताएं कैसी पढ़ता हूं. तभी उन्हें पता चला कि तुमसर व आजमगढ़ में जिन दिनों रहता था कवि
सम्मेलनों में जाया करता था. उन्होंने सुनने की इच्छा जाहिर की थी. कोलकाता पुस्तक मेले बिहार सरकार
के एक प्रकाशक ने कवि सम्मेलन आयोजित किया था. अपने मंडप में ही. वहां मुझे काव्य पाठ के लिए बुलाया. सुना. और ओके क़िया कि मंच पर जमते हो. उसके बाद तो उन्होंने कई कवि-सम्मेलनों में बुलवाया. अच्छी खासी रकम के साथ. उन्हीं की वजह से मैं एक बार
फिर मंच से जुड़ा, जहां कवि और ोता आमने-सामने होते हैं. वरना पश्चिम बंगाल में मुझे जहां
कहीं भी काव्य-पाठ का अवसर मिला है, वहां ोता नदारद. वही सुनने वाले, वही पढ़ने वाले. यही भ्रम होता रहा कि हम केवल
अपनी मुट्ठी भर लेखक मित्रों के लिए ही लिखते हैं. बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों में मैं जा सका तो उनकी
वजह से भी. फिर ऐसा
भी हुआ कि ऐसे आयोजनों में भी उनके साथ पढ़ने का अवसर मिला जिसके बारे में साथ बुलाए
जाने का पता हम दोनों को ही नहीं होता था. एकएक मुलाकात का अवसर और सुखद रहा. राज्य के बाहर भी आयोजनों में
उनके साथ जाने का मौका मिला है. रास्ते में खिलाते-पिलाते गए. वहां मेरे ठहरने का इंतजाम स्वयं
देखते. और चुटीली
बातों के कहकहे. वे गीतमय हैं. जीवन सुरीला. मीठी बातें करने में उनका सानी
नहीं. आश्चर्य
तब होता है जब उनकी कविताओं में जीवन के यथार्थ की पुख्ता पहचान भी मिलती है. और लोक-जीवन तो रचा-बसा ही है- सड़कों पर शीशे की किरणें हैं. और नंगे पांव हमें चलना है. सर्कस के बाघ की तरह हमको लपटों
के बीच से गुजरना है.' कृत्रिमता के परे उनके गीत पारदर्शी लगते हैं मुझे. बड़ी बातें नहीं, सहज, सीधी. हल्की-फुल्की. पता लगाना मुश्किल की नवगीतों
के राजकुमार के साथ हैं. मंच से उतरते ही आटोग्राफ के लिए श्रोताओं से घिरे बेहद कम कवियों
को मैंने देखा है, जिनमें वे भी हैं. मैं नहीं जानता उनका स्नेह भाजन क्यों
हूं. वरना
वे उस मंचीय दुनिया के कवि हैं, जहां सारे सरोकार मंच जुगाड़ के होते हैं- तू मुझे बुला, तब मैं तुझे बुलाऊं' की नौबत वहां होती है. उनकी आत्मीयता का यह आलम है कि
पत्र मिलता है-प्रिय भाई, बहुत दिनों से न आप आए, न आपका कोई ख़त, न कोई फोन. ऐसे में, सिर्फ कामना करता हूं कि आप स्वस्थ, सकुशल रहे. आपके काव्यपाठ का एकचित्र मेरे
पास कई दिनों से पड़ा हुआ है. सोचा था कि मिलेंगे तो सौंप दूंगा, मगर अब रहा नहीं जा रहा, इसलिए वह फोटो डाक से भेज रहा
हूं.'
कभी वे बनारस के आज अखबार में संपादकीय विभाग में कार्यरत थे. उन्हीं दिनों नवगीतों का दौर
चला था तो वे चर्चा में आए. फिर क्या था शहर-शहर में कवि सम्मेलन के मंचों पर उन्हें
चाव से सुना जाता था. गीत परंपरा, जिसे साहित्य के दिग्गजों ने नकार दिया. आलोचकों ने उसे अछूत मान लिया. कोलकाता में तो गीत विधा की मौत
का मातम मनाते हुए उस पर लंबे-लंबे लेख लिखे गए. उसी गीत को कोलकाता में रहकर नया निखार
देने में वे अरसे तक अनवरत लगे रहे. कभी डाक्टर धर्मवीर भारती के वे दुलाने
गीतकारों में वे से रहे हैं. आधुनिक गीतकारों की त्रयी में भारती जी उन्हें भी शुमार
करते थे. डॉक्टर
मि ने गीत विधा के प्रति ऐसा विश्वास भरा कि मैंने अपना संकोच छोड़ कर गीतों का संकलन
प्रकाशित कर ही दिया-वह हथेली', जो उन्हीं को समर्पित है, जिसके कि वे अधिकारी ही थे.
कोलकाता में उन्हीं दिनों मिले उनके पत्र ने मेरी आखें नम कर दी-संभवतः अब तक यह जानकारी आपको
किन्हीं /ोतों से
मिल गई होगी कि मैं फरवरी - 98 के अंतिम सप्ताह में भारत सरकार के प्रतिष्ठान तेल एवं प्राकृतिक
गैस निगम (ओएनजीसी) के देहरादून स्थित प्रधान कार्यालय
में, प्रतिनियुक्ति
आधार पर मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) का पदभार ग्रहण करने जा रहा हूं. यह घटना मेरे लिए इस अर्थ में
दुखद है कि उसके बाद भौगोलिक दृष्टि से मैं आपसे दूर हो जाऊंगा. मैं यह स्वीकार करता हूं कि कोलकातामें
हिन्दुस्तान कॉपर लि क़े राजभाषा प्रबंधक के रूप में मुझे जो सफलता या ख्याति मिली, उसमें आपके आत्मीयतापूर्ण सहयोग
का बहुत बड़ा हाथ रहा है. इस अवसर पर, जबकि मैं लगभग हमेशा के लिए कोलकाता कार्यक्षेत्र छोड़ रहा
हूं, आपके
प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना मेरे पुनीत कर्तव्य है, परंतु मेरे पास ऐसे शब्द नहीं है, जो मेरे मन के उद्गारों को सटीक
अभिव्यक्ति दे सकें. एतएव, मुझे क्षमा करें. मेरे प्रति आपके जो कोमल भाव है, वे हमेशा मेरे मन में विकसित
होते रहेंगे. और मुझे
सुरभित करते रहेंगे. सप्रीति. सदैव आपका- बुध्दीनाथ मि.
पत्र 17 फरवरी
का लिखा हुआ था. प्रेम के शब्दों की कमी के लिए क्षमा प्रार्थी तो कवि ही हो सकता
है.
मुझे उनका कोलकाता छोड़कर जाना मुझे मायूस कर रहा था पर मुझे नहीं मालूम था
कि कोलकाता मुझे भी छोड़ना पड़ सकता है. पर वह छूटा. नहीं चाहते हुए भी. पर उसके पहले उनसे मुलाकात हुई
थी. उन दिनों
मैं छपते-छपते दैनिक
मैं समाचार संपादक हो गया था. वहीं उनका फोन आया था. मेरे घर फोन करके वहां से मेरे इस कार्यालय
का नंबर मिला था. पता चला वे कल पहुंच रहे हैं. ज्ञानमंच में. मुझे पहुंचना है. कोई कार्यक्रम है. और उस कार्यक्रम में पहुंचना
अनुभव के एक सुखद आस्वाद से गुजरना था. यह संध्या पूरी तौर पर बुध्दिनाथ मि को
ही समर्पित थी. मशहूर कथक नृत्यांगना चेतना जालान ने उनकी कविताओं पर नृत्य और
काव्य नाटकों की प्रस्तुति की थी. उनके गीतों को संगीत और नृत्य के आलोक में देखना उनकी नई
अर्थवत्ता को हासिल करना लगा. यह मेरी उन से अब तक हुई अंतिम मुलाकात है.
परमुझे खोजता उनका पत्र अमृतसर में मिला था-आपने तो चौंका दिया. कोलकाता में रचे-बसे पत्रकार झाल-मूड़ी खाकर गुजर कर लेंगे, मगर कभी बर्दवान से आगे बढ़ने
का साहस नहीं करेंगे. मगर आपने ऐसी छलांग मारी की बरसाती मेढकों के भी कान काट लिए. मुझे गुरूर था कि मैं ही छलांग
मार सकता हूं. समस्तीपुर
से काशी, काशी
से कलकत्ता, कोलकातासे
देहरादून. मगर आपने
मुझसे भी लम्बी छलांग लगा गए-बिल्कुल हनुमान कूद.
कई प्रश्न मन में उठ रहे हैं. कोलकाता कब छोड़ा. अमर उजाला कब ज्याइन किया? बहू कहां है इस समय? सपरिवार आए कि अकेले?
यह भी संयोग है कि मैं पिछले तीन दशकों में कवि सम्मेलन की वजह से देश का चप्पा
-चप्पा छान मारा, मगर जालंधर तक कई बार जाकर भी अमृतसर
नहीं गया. शायद
अब आपके साथ ही स्वर्ण मंदिर जाकर मत्था टेकना लिखा हो. हम कलमजीवियों के लिए तो सबसे
बड़े देवता वही हैं-गुर ग्रंथ साहिब.'
और फिर सुना की पास ही भोपाल आकर वे चले गए. इस वर्ष का दुष्यंत पुरस्कार उन्हें मिला
है. मायूसी
भी हुई कि उनने संपर्क नहीं किया. पर आखिरकार उनका पत्र मिला कि एक दो बार देहरादून से फोन
किया मगर सफलता नहीं मिली. यदि आप इंदौर में रहें तो दो एक दिन के लिए मैं इंदौर-भोपाल आने का कार्यक्रम बनाऊं. तो लगा कि मेरी मायूसी का कोई
औचित्य नहीं.
उनका एक गीत मुझे अक्सर याद आता है-अलग अलग संदर्भों में- मन के आईने में उगते जो चेहरे
हैं/हर चेहरे
में उदास हिरनी की आंखें हैं. आंगन से सरहद को जाती पगडंडी की/दूबों पर बिखरी कुछ बगुले की
पांखें हैं. अब तो
हर रोज हादसे गुमसुम सुनती है/ अपनी यह गांधारी जिन्दगी. वे भी क्या दिन थे, जब सागर की लहरों ने/घाट बंधी नावों की पीठ थपथाई
थी. जाने
क्या जादू था मेरे मनुहारों में, चांदनी लजाकर इन बांहों में आई थी. अब तो गुलदस्ते में बासी कुछ
फूल बचे/और बची
रतनारी ज़िन्दगी.'
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