व्यक्ति नहीं संस्था हैं शंभुनाथ

अवस्थी जी कर्तव्यनिष्ठ हैं, वैसा ही चाहते हैं

 

डॉ.अभिज्ञात  

भड़ास फार मीडिया वेबसाइट पर 'संपादक की सनक के शिकार हुए विशु प्रसाद' टिप्पणी पढ़कर दुख हुआ कि आज के दौर में अनुशासन और पेशे के प्रति ईमानदारी और समर्पण चाहने वाले श्री संत शरण अवस्थी जैसे सम्पादकों की सख़्ती के आगे न टिक पाने वाले पत्रकार किस हद तक नीचे उतर पर चर्चा कर सकते हैं. यह तो सच है कि अवस्थी जी जैसे खरे प्रभारी के आगे ब्लफ मास्टर और शेखचिल्ली किस्म के पत्रकारों की दाल नहीं गल सकती और ना ही काम निकालने की गरज़ से उनके क़रीब पहुंचने वाला अपने उद्देश्य में क़ामयाब हो सकता है. वे स्वयं पाबंद और चुस्त-दुरुस्त व्यक्ति हैं और अपने सहयोगियों से भी काम में परफेक्शन और लगन चाहते हैं. इस टिप्पणी में जिन लोगों के नाम लिये गये हैं, संभव है कि उनके ज़माने में उनकी छुट्टी हुई हो. और यदि ऐसा हुआ है तो भी उसकी वज़हें वही होंगी जो उन्हें बतायी गयी होंगी. अवस्थी जी के समक्ष चलताऊ काम करने वालों की खैर नहीं रहती है और होनी भी नहीं चाहिए, जो पत्रकार उनके हाथों अपनी दुर्गति करा चुके हैं वह उसी योग्य होंगे. यह किसी से छिपा नहीं है कि पत्रकारिता में तिकड़बाजों की बटालियनें सक्रिय हैं.


विवेकसम्मत कार्यपद्धति को लोप होता जा रहा है. ऐसे में श्री संत शरण अवस्थी जैसे लोग हैं जो जिनसे तिकड़मबाजों की रुह कांपती है. पत्रकारिता उनका पेशा नहीं, जीवन है और वह हर पेशे में वैसा ही समर्पण चाहते हैं जैसा एक फौज़ी का ड्यूटी के दौरान अपने कर्तव्य के प्रति होता है. वह पत्रकारिता को इमरजेंसी सेवाओं में ही शुमार करते हैं. अवस्थी जी के साथ मैंने कुछ माह पत्रकारिता के जिये हैं. काम किया है, कहना ग़लत होगा. दैनिक जागरण, जमशेदपुर उस समय लांच नहीं हुआ था अपितु उसकी तैयारी चल रही थी. कुछ दिन हमने गेस्ट हाउस में भी साथ गुज़ारे थे. सोने से पहले गप्प लड़ाते हुए और प्रातः उठकर डिमना झील के पास मार्निंग वाक करते समय. कई बार तैयारियों के दौर में दोपहर बारह बजे से भोर तीन बजे तक कार्यालय में साथ रहे. मैं उन दिनों 'एलीट क्लास' के लिए रोज़ाना एक पृष्ठ और साप्ताहिक चार पृष्ठों का फ़ीचर परिशिष्ट 'शहर अपना शहर' का प्रभारी था. दैनिक जागरण के जमशेदपुर के साथ रांची और धनबाद संस्करण भी एक साथ निकले थे लेकिन यह अवस्थी जी का ही नेतृत्व था कि 'शहर अपना शहर' सबसे पहले जमशेदपुर से ही निकलना शुरू हुआ था. लोकार्पण के साथ प्रकाशित भव्य स्मारिका, जो झारखंड के बारे में वृहद जानकारी से लैस आलेखों के साथ प्रकाशित हुआ था, सर्वाधिक आलेख जमशेदपुर से लिखवाकर और सम्पादित कर भेजे गये थे.

मैं जो कि अपने परिवार को बेहद मिस कर रहा था, कुछ दिन जमशेदपुर टिका रहा तो इसलिए कि अवस्थी जी जैसे व्यक्तित्व का साथ था, वरना कुछ माह पूर्व ही मैं वेबदुनिया, इंदौर छोड़ आया था, बगैर कोलकाता में कोई कामकाज खोजे. मन में उम्मीद थी कि कोलकाता से जागरण शुरू होगा या ब्यूरो बनेगा तो कोलकाता लौट पाऊंगा. मुझे कोलकाता के लिए आश्वासन नहीं मिला और मैंने कोलकाता में सन्मार्ग ज्वाइन कर लिया. जो लोग अवस्थी जी को सनकी कह रहे हैं उन्हें बता दूं कि नौकरी से इस्तीफा़ देने वाले अपने इस जूनियर कलीग को स्टेशन छोड़ने स्वयं अवस्थी जी भी टाटा स्टेशन रात ढाई बजे पहुंचे थे. और महज कुछ माह साथ रहने के बावजू़द वह अब भी मेरे बड़े भाई बने हुए हैं और फ़ोन से हालचाल पूछते रहते हैं कि किसी तक़लीफ़ में तो नहीं हो. बच्ची अब क्या कर रही है, भाभी जी कैसी हैं? जमशेदपुर, जागरण ज्वाइन करने से पहले मेरा उनसे कोई परिचय नहीं था, फिर यह लगाव का स्रोत क्या है? कृपया पत्रकार जगत ऐसे लोगों को सम्मान देना सीखे जो कर्तव्य में कठोर हैं और लोकाचार में अपनों से अधिक सगे. पेशागत अनबन होती रहती है, अख़बार बदलते रहते हैं लेकिन हम जिस पेशे से जुड़े हैं, उसमें कही कोई ईमानदारी बची है तो उसकी रक्षा होनी चाहिए और प्रशंसा भी.


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