संस्मरण
-डॉ.अभिज्ञात
मैं शायद कुछ अच्छी कविताएं न लिख पाता अगर यकायक मेरी साढ़े तेरह साल की बेटी
मृदुला सिंह ने यह सवाल न पूछा होता कि पापा यह उपन्यास क्या होता है, और इसके दो महीने बाद उसने न
बताया होता कि इस बीच उसने अंग्रेजी में कुछ कविताएं और हिन्दी में एक हारर स्टोरी
लिखी है. उसके
पहले सवाल और बाद में एकाएक लिखने का सिलसिला नहीं मिलाता. इस अंतराल की वजह यह है कि हमारी
मुलाकातों के बीच मेरी नौकरी है. जिसे करना मेरी आंतरिक आवश्यकता और छोड़ने की आकांक्षा मेरी
मजबूरियां.
मैंने पिछले तीन सालों में मृदुला और अपनी पत्नी प्रतिभा को जितना खोया है
उसके अनुपात में उन्हें पाया है अपने मन की दुनिया में. अपनी अनुभूतियों में. उनसे दूरी मुझे लगातार इनके आस-पास रखने में कामयाब रही. इनकी करीबी में मैंने कभी इनके
होने पर बहुत गौर कभी नहीं किया.
मुझे यह पता नहीं कि कब मृदु ने बड़ा होना शुरू कर दिया. और कब उसका कद उसकी मां से कुछ
ही छोटा रह गया है. वह मेरी मन की दुनिया में आज भी वही शिशु है जो तीन-चार बरस की बमुश्किल होगी. कई बार तो छुट्टियों में घर लौटता
हूं तो मुझे लगता है वह अब भी वैसे ही दौड़कर आएगी जब उसने पहले पहल चलना सीखा था और
उसे एकाएक एक खाली बड़ा कमरा थोड़ी देर के लिए मिल गया था.
हर बार वह एक नई अदा, मुद्रा और हाव-भाव के साथ मिली है. बच्चों के बढ़ने में यह दो तीन
माह का अंतराल भी कम नहीं होता. प्रतिभा में भी बदलाव आता रहा, मगर बहुत कम. मगर मृदु में न सिर्फ शारीरिक
बल्कि मानसिक अवस्थाओं रूचियों, रूझान का फर्क या फिर उसमें परिष्कार मेरे लिए गहरे कौतूहल
का विषय रहा है.
तीन साल की उम्र में जब उसने आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने का जुनून पाला तो
हमें अच्छा लगा था. अखबार से मिलने वाला पैड और रंगीन पेस्टल कलर पेंसिल उसके लिए
देने में हमें सुविधा इसलिए भी महसूस हूई थी, क्योंकि उस समय तक प्रतिभा स्टेज पर संगीत
के कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगी थीं. वह कई बार स्टेज के सामने और स्टेज पर
ही रंगों व रेखाओं की दुनिया में डूबी रहती और प्रतिभा अपने गायन में. उसे व्यस्त रखने में उसकी चित्रकला
के रुझान को हमने व्यसन की तरह इस्तेमाल किया था. कई बार प्रतिभा को दूसरे शहरों में जाना
होता और कई बार रात भर के कार्यक्रम होते तो मैं उसे अपने साथ अखबार के कार्यालय ले
जाता जहां वह चित्रों में व्यस्त रहती और मैं टेलीफोन से रिपोर्ट लेने और उसे लिपिबध्द
करने में. जनसत्ता
के कार्यालय में कई रात देर तक काम करना पड़ता और वह उसी टेबल पर सो जाती जिस पर मैं
लिख रहा होता.
कई बार ऐसा हुआ है कि मैं प्रेस में पहले से होता तो प्रतिभा कार्यक्रम में
जाने से पहले मृदु को मेरे हवाले कर जाती. पत्रकारिता का काम निपटाने के बाद उसी
नींद की हालत में गोद में उठाकर जनसत्ता के कलकत्ता, बीके पाल कार्यालय से आटो रिक्शा से विधाननगर
रेलवे स्टेशन और फिर वहां से सियालदह से रात 1148 पर छूटने वाली लोकल ट्रेन से टीटागढ़ पहुंचा
हूं और स्टेशन से देर रात की वजह से पैदल उसे नींद की हालत में ही गोद लेकर पातुलिया
घर पहुंचा हूं. उसे हमारे संघर्ष का कोई स्मरण नहीं है और न ही जानकारी.
उसे यह नहीं पता है कि मैं उसकी चाहत के बावजूद उसे खेलने के लिए और भाई-बहन नहीं दे सकता. वह खौफनाक रात मुझे याद रहती
है जब उसकी मां को लगभग आठ महीने की गर्भावस्था में घर में रात को अकेला छोड़कर मैं
एक आदिवासी के बलात्कार की खबरों में उलझा रह गया था. और भोर की पहली ट्रेन से जब घर
पहुंचा तो पता चला कि पड़ोसियों ने प्रतिभा को रक्त/ाव की हालत में नर्सिंग होम में भर्ती
कराया है, जहां
वह रात साढ़े ग्यारह से मेरे पहुंचने तक पेट में मरी हुई बच्ची की वजह से असह्य यंत्रणा
झेलती रही थी और मौत से जूझती हालत में डॉक्टर बगैर किसी सगे संबंधी की मौजूदगी या
स्वीकृति के अभाव में उपचार करने का जोखिम नहीं उठा सके थे. मृत शिशु को पेट में घंटों रखने
की वह पीड़ा न जाने कितने प्रसवों की पीड़ा रही होगी, जो प्रतिभा ने झेला है. प्रतिभा प्रसव के जोखिम को फिर
उठाने को बेचैन है, मगर मेरा प्रायश्चित यही है कि मैं अपनी पहली ही औलाद को वह दुलार
नहीं दे सका हूं, जिसकी वह हकदार है तो फिर अब दूसरे की बात बेमानी है. और यह दूसरी बेटी जिसने जन्म
से पहले ही मृत्यु का वरण कर लिया था यह भी सायास नहीं थी. वह उन भाव-विह्वल संवेनशील क्षणों की देन
थी जब मैं खुद जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा था.
बालक ब्रह्मचारी उस शख्सियत का नाम है, जिसके कारण मैं पुलिस की 27 लाठियां खाने की स्थिति में पहुंचा, जिसे लोगों ने देवता बना दिया. विभाजन के बाद बांग्लादेश में
उसने जन्म लिया था और जिसने अपने जीवन काल में कई लाख शिष्य बनाए थे. वह निर्विकल्प समाधि की बात करता
था. जब उसकी
मौत कलकत्ता के कोठारी हॉस्पिटल में हुई तो उसके शिष्यों ने यह मानने से इनकार कर दिया
कि वह मर भी सकता है. बालक ब्रह्मचारी निर्विकल्प समाधि पर हैं, यह उनके शिष्यों और उनके शिष्य
समूह संतान दल' ने प्रचारित किया. लाखों की संख्या में रोज उनके शव के दर्शन
करने लेग उनके सोदपुर स्थित सुखचर धाम में आने लगे थे. मृत्यु के दिन से ही जनसत्ता
की ओर से मेरी डयूटी लगी थी और यह कर्मकाण्ड 54 दिन तक चला था. जिसमें 50 दिन मैंने लगभग अपने दिन-रात की कवरेज की थी. रोज 4-5 रिपोर्ट अखबार में छपती. मेरे साथ बांग्ला दैनिक आजकल
का रिपोर्टर और मेरा प्रिय दोस्त उदय बसु भी हर समय साये की तरह बना रहा. कई जगह तो हम आईबी क़ा आदमी बनकर
गोपनीय जानकारियां हासिल करने में भी सफल रहे. हमने जल्द ही वे रूई के फाहे खोज निकाले
थे जिससे बालक ब्रह्मचारी का शव पोछा जाता था और जिस पर वे केमिकल पाए गए थे जिससे
लाश को सड़ने से बचाया जा सकता है.
मैंने जनसत्ता में इसकी फोटो भर दी थी पर उदय बसु ने बाजी मार ली थी उसके अखबार
ने वे रूई के फाहे फरेंसिक विभाग को सौंपे
थे जिससे पश्चिम बंगाल सरकार को यह यकीन हो सका था कि जो लाश सड़ नहीं रही है उसका कारण
केमिकल है. उसके
बाद उदय बसु संतान दल के लोगों का दुश्मन बन गया था, लेकिन संतान दल से मेरा संबंध इसलिए प्रगाढ़
रहा क्योंकि मैं रोज एक खबर वह लिखता था जो उनके उन बयानों पर आधारित होती थी जो उनके
पक्ष को स्पष्ट करती थी. उस खबर की कतरन उन्हें देता था और उन्हें पढ़ कर भी सुनाता था. वे हिन्दी नहीं पढ़ पाते थे, लेकिन उनके विरोध में जाने वाली
तमाम खबरें भी रोज होती थीं. संतान दल ने प्रचारित करना शुरू किया था कि हमारा दुश्मन
आजकल', हमारा
दोस्त जनसत्ता'. बालक ब्रह्मचारी की कवरेज का जनसत्ता' पर सकारात्मक प्रभाव इसलिए दिखाई
देने लगा था, क्योंकि
उसमें कई रोचक मोड़ होते थे, लेकिन यह कवरेज मेरे लिए कई मोर्चों पर क्षतिकारक रहा. उन दिनों मेरा कारोबार घाटे में
चल रहा था, मेरी
गैरमौजूदगी में वह घाटा और बढ़ गया. केदारनाथ सिंह की कविताओं पर पी-एचडी का शोध जमा करने की तिथि
लगातार करीब आती जा रही थी. शोध निर्देशिका डॉ ऌला रानी सिंह के फोन आने पर भी मैं उनके यहां
अपना शोध कार्य दिखाने नहीं पहुंच सका, जबकि कॉलेज में उनकी छुट्टियां चल रहीं
थीं. खफा होकर
वे अपने भाई के यहां बंगलोर चली गईं. जब शोध जमा करने में दस दिन बचे तो मैं
जनसत्ता से छुट्टी लेकर उनके यहां यह कहने पहुंचा कि अब समय निकल चुका है सो मैं सीधे
टाइप की हुई प्रति आपको देने जा रहा हूं जिस पर आपको केवल हस्ताक्षर भर करना है. मेरे प्रस्ताव पर वे ऐसा बिफरीं
कि वह मेरी उनसे अंतिम मुलाकात ही साबित हुई. और मेरी पांच साल की मेहनत जाती रही. मैं कभी अपना शोधकार्य किसी भी
विश्वविदयालय में जमा नहीं कर सका. मैं वापस जनसत्ता की ट्रिंगरीय डयूटी
पर लौट आया, जहां
बालक ब्रह्मचारी की कवरेज मेरा इंतजार कर रही थी. जिस रात रात सवा दो बजे पश्चिम बंगाल
सरकार ने ऑपरेशन सत्कार' को अंजाम देते हुए बालक ब्रह्मचारी के शव को अपने कब्जे में लेकर
उसका अंतिम संस्कार कर अंधविश्वासों पर रोक लगाने का कार्य किया उसका पता सभी को था. शाम साढ़े छह बजे रोज की तरह संतान
दल की ओर से सुखचर आम में प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई तो उसके प्रवक्ता ने बयान दिया कि चाहे
हजारों लोगों को अपनी जान देनी पड़े हम लाश को छूने नहीं देंगे. आदि शंकराचार्य की तरह बालक ब्रह्मचारी
भी निर्विकल्प समाधि से लौटेंगे तो अपना शरीर खोजेंगे, इसलिए उनके शरीर की रक्षा जरूरी
है.
मैं इस बेहद जोखिम भरे और रोमांचकारी कारनामे को देखने के अनुभव से अपने को
वंचित करने को तैयार न था. मैंने संतान दल के प्रमुख लोगों से बात की और उन्हें इस बात पर
राजी कर लिया कि मैं ऑपरेशन सत्कार के दौरान भी रात को उन्हीं लोगों के साथ रहूंगा. मैं उन्हीं के साथ अपनी जान गंवाने
को तैयार था. उन्हें
अपने देवता के प्रति अपनेर् कत्तव्य का निर्वाह करना था और मुझे अपने पेशे के प्रति. मैंने जनसत्ता' के स्थानीय संपादक श्यामसुंदर
आचार्य को मेरे साथ ही प्रेस कांफ्रेंस में पहुंचे कृष्णदास पार्थ की मार्फत फोन पर
यह खबर दे दी कि मैं ऑपरेशन के दौरान आम में रहूंगा और हंसते हुए कहा था कि यदि मैं
बाद में न मिला तो लाशों में से खोज लिया जाए. जनसत्ता की ओर से दो रिपोर्टर और एक फोटोग्राफर
इस कवरेज के लिए रात बारह बजे से आम के बाहर लगा दिए गए थे जहां अन्य सभी मीडिया वालों
के लिए पुलिस ने अपने हिसाब से सुरक्षित जगह मुहैया कराई थी तथा उस दायरे से बाहर जाने
पर मनाही थी. रात नौ
बजे सुखचर धाम का भव्य लौह गेट भीतर से बंद कर ताला लगा दिया गया. अब धाम के भीतर लगभग पांच हजार
भक्त थे, जिनमें
युवतियां भी थीं और सत्तर साल के बुजुर्ग भी. रात एक बजे टीवी चैनल की पत्रकार मणिदीपा
बनर्जी ने गेट के बाहर से पुर्जी भिजवाई कि वे भीतर आना चाहती हैं. संतान दल के लोग उन्हें उसी तरह
मना करने जा रहे थे जैसे उन्होंने आनंद बाजार को किया था, मगर मैंने मणिदीपा के लिए गुजारिश
की तो वे मान गए. अब हमारे साथ मणिदीपा और उनका कैमरामैन भी था.
रात पौने दो बजे जब पुलिस की ओर से बाहर से माइक पर घोषणा की जा रही थी कि
संतान दल के लोग बालक ब्रह्मचारी की लाश पुलिस के हवाले कर दें वरना उन पर हमला कर
दिया जाएगा, तो हम
कॉफी पी रहे थे. संतान दल पर पुलिस की घोषणाएं बेअसर थीं. सवा दो बजते-बजते पुलिस ने लौह गेट तोड़ डाला
था. ऑपरेशन
सत्कार का नेतृत्व करने वाह्ने एसपी रछपाल सिंह ने जैसे ही धाम में प्रवेश किया संतान
दल के एक सदस्य ने उनकी जांघ में त्रिशूल भोंक दिया. उसके बाद तो हवाई फायर की आवाज गूंजने
ह्नगी. इसके
पहले ऑसू गैस के गोले बाहर से ही आम परिसर में फेंके जा चुके थे और लाइट काट दी गई
थी. मणिदीपा
के अनुरोध पर उसकी शूटिंग की सुविधा के लिए मैंने धाम की दीवार पर उसके फोटोग्राफर
और उसे दीवार पर सहारा देकर चढ़ा दिया और फिर नीचे असहाय और निरूपाय महसूस करने ह्नगा. मैं परिसर में निकल आया जहां
ऑसू गैस से आंखों में जलन होने लगी थी. फिर गोलियों की आवाज से लगा कि कहीं उसका
निशाना न बन जाऊं . इसी बीच पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया और मुझ पर भी लाठियां
बरसने लगी. आत्मरक्षा
के लिए मैं प्रेस-प्रेस चिल्लाने लगा तो एक पुलिसवाले ने इसे ब्लफ समझा और कहा ए
खाने प्रेस की कोरे ढूकबे. प्रेस के ए खाने आशा बारन करा आछे.' मैं बेहोश होकर गिर पड़ा. काफी देर बाद मुझे होश आया तो
पता चला की मेरे ऊपर काफी बोझ है और गहन अंधेरा. आंखों में जलन और शरीर का पोर-पोर दुख रहा था. मुझे लगा मैं मर चुका हूं. और नर्क में हूं, इसलिए इतनी तकलीफ है. मैंने मृदु को याद किया और प्रतिभा
को. मुझे
अफसोस हूआ मैंने इन्हें दुखी रखा, नतीजा सामने है. नर्क सचमुच है और मुझे नर्क ही मिला है, लेकिन जल्द ही इसका भान हो गया
कि मैं नर्क में नहीं हूं. जीवित हूं और मेरे ऊपर कई और बालक ब्रह्मचारी के भक्त हैं जिन्हें
पुलिस ने पीट- पीटकर
एक-दूसरे
के ऊपर ढेर कर दिया है. तकलीफ में उनके मुंह से बालक ब्रह्मचारी का दिया मंत्र राम नायायण
राम' ही निकल
रहा था. आखिरकार
पुलिस ने एक-एक कर
लोगों को उठने को कहा जो नहीं उठ सका उसे खुद मिल-जुल कर उठा लिया और उन्हें पुलिस की गाड़ियों
में लादकर विभिन्न स्थानों पर लेकर पटक आने का काम शुरू किया. तो मुझे भी सहारा देकर उठाया
गया. पुलिसवाले
के सहारे चलता हुआ मैं धाम के बाहर आया तो एक जगह बड़े हर्फों में लिखा प्रेस इक्तफाक
से दिख गया. मैंने
जोर से दोस्तों को आवाज दी तो जनसत्ता के मेरी ही तरह स्ट्रींगर कृष्णदास पार्थ दौड़कर
मेरे पास आए. सहारा
देकर वे जनसत्ता की एम्बेसडर तक ले गए. उन्होंने मेरे साथ जाने में असमंजस दिखाई, क्योंकि मुझे अस्पताल ले जाने
की तुलना में कवरेज अधिक जरूरी था. मैंने कहा मैं ड्राइवर के साथ
अकेले डॉक्टर के यहां चला जाऊंगा.
पार्थ ने ही बताया कि कलकत्ता जाने के सारे मार्ग बंद कर दिए गए हैं. मैंने ड्राइवर को कलकत्ता की
उल्टी दिशा की ओर सरकारी बीएनबोस हॉस्पिटल चलने को कहा. हॉस्पिटल में डॉक्टर ने इस बात
की सराहना की कि जल्द ही अस्पताल पहुंच कर मैंने अच्छा किया है. वरना दाएं हाथ की जो अंगुलियां
टूट कर इधर-उधर हो
गई हैं वे जहां अधिक देर तक रहेंगी वहीं जुड़ने लगेंगी. उसने कोशिश की की छितराई हड्डियां
अपनी सही जगह पहुंच जाएं. दूसरे हाथ, दोनों घुटनों और पीठ पर लाठियों के निशान साफ दिख रहे थे. डॉक्टर ने कहा कि पेनकिलर दवाएं
वह दे रहा है, मगर तत्काल
मुझे किसी बड़े डॉक्टर के यहां कलकत्ता निकल जाना चाहिए और अपने परिवार से भी मिल लेना
चाहिए, क्योंकि
लाठी की चोट का कोई ठिकाना नहीं कब क्या हो जाए. कलकत्ता जाने का रास्ता खैर तब तक बंद
ही था मैं अपने घर गया था. जहां से दो घंटे बाद कलकत्ता. गनीमत यह थी कि तमाम एक्स-रे के बावजूद केवल दाएं हाथ की
हड्डियों में ही फ्रैक्चर था, लेकिन पीठ की चोट को लेकर डॉक्टर संशय में थे. चोट अंदरूनी तौर पर कुछ भी असर
कर सकती थी. मैंने
बैंडेज तो करा लिया पर किसी भी अस्पताल में एक दिन को भी भर्ती नहीं हुआ. मैं अपने घर में अपनों के बीच
ही दम तोड़ना चाहता था. डेढ़ माह तक पेनकिलर दवाओं ने मेरे दर्द से निजात दिलाने में मदद
की. मेरा
संकट यह था कि मैं किस तरह से सोऊं हर करवट किसी न किसी जख्म की जद में थी. इसलिए इसकी परवाह छोड़ दी. और नींद दवाओं के असर से आती
रही. हर बार
निगाह खुलती तो लगता कि मैं जिन्दा हूं अभी. जीवन की इसी अनिश्चयता और पेनकिलर दवाओं
के रहम पर दर्द सहते क्षणों में प्रतिभा ने फिर मां बनने की कोशिश की थी. और जिसका मरा चेहरा तक वह नहीं
देख पाई थी. और इसलिए
वह उस दुख से बच गई जो जिन्दगी भर उसका पीछा नहीं छोड़ता. उसके लिए दूसरी बेटी का जन्म
अनुभव और कल्पना का मिला-जुला हिस्सा रहा. प्रत्यक्षीकरण नहीं हुआ था.
वह असह्य दर्द से गुजरी जरूर थी, पर बेटी के शव को उसके शरीर से निकालते
वक्त वह बेहोश थी. बाद में वह कई दिनों तक सन्नाटा महसूस करती रही और दूसरे शिशुओं
को देख कर मायूस होती रही. छोटे शिशु को गोद में ह्नेने की ख्वाहिश उसमें आज भी बरकरार है
जो दूसरी बेटी ने अपने को खोकर उसने पैदा किया था. मुझे पता भी चला था वह दारण औलाद खोने
का दुख. सफेद
कपड़े में अपनी बाहों में लेकर गया था उस खूबसूरत बच्ची को और रासमणिघाट पर हुगली के
तट पर गीली नर्म मिट्टियों के बीच उसी तरह गाड़ आया था, जिस तरह बचपन में भूसे में आम. मैं नहीं जानता मैंने संस्कार
भी पूरे और सही तौर पर किए थे या नहीं, क्योंकि उस वक्त मुझे इसकी जानकारी देने
वाला कोई और नहीं था सिवा ओड़िया चित्रकार मित्र अमर पटनायक के. उसने जो-जो कहा मैंने किया. बस उसने मुझे रोने से चुप होने
को कहा था जो मुझसे नहीं हो सका था. उस दिन मैं कह सकता हूं कि मैं दो मील
रोया था, क्योंकि
अस्पताल से घाट की दूरी एक मील जरूर होगी जो मुझे पैदल तय करनी पड़ी थी और जो कट ही
नहीं रहा था. मैं डर
रहा था कि बच्ची कहीं हाथ से फिसल न जाए. उतने छोटे बच्चे को मैंने कभी गोद में
लेने का जोखिम नहीं उठाया था. मृदु को काफी बड़ी होने के बाद मैंने गोद लिया जिसका ताना
आज तक प्रतिभा देती है कि मैं क्या जानूं बेटी को प्यार करना जिसने छुटपन में गोद लिया
ही न हो.
बालक ब्रह्मचारी की जोरदार कवरेज का इनाम यह मिला कि मेरी रिटेनरशिप में पांच
सौ से बढ़ाकर आठ सौ कर दी गई अर्थात तीन सौ रपए का इजाफा.(छपी हुई खबरों पर 2 रूपए पंद्रह पैसे की अदायगी अतिरिक्त
थी ही.)और इलाज
के खाते में एक हजार रुपए. घर में डेढ़ माह विस्तर पड़े रहने की वजह से कारोबार लगभग बैठ गया. ठीक होने पर अपनी शोध निर्देशिका
से मिलने और शोध कार्य जमा करवाने की तिथि बढ़वानेका मिजाज बना तो पता चला कि उन्हें
कैंसर हो गया है वे दिल्ली में इलाजरत हैं और आखिरकार इस बीमारी ने उनकी जान ले ली. मैं उनसे मिल ही नहीं पाया. यह अनायास नहीं है कि सात-आठ सालों तक काम करने के बाद
जनसत्ता' जैसे
बड़े नाम वाले अखबार को छोड़कर मैंने सांध्य दैनिक महानगर' और उसके बाद दैनिक छपते-छपते' में पूरी निष्ठा के साथ जिम्मेदार
पदों पर काम किया. और शायद इन्हीं सब में जिन्दगी खपा दी होती, अगर विवेकवान और सुसंस्कृत रामेश्वर
पाण्डेय ने अमर उजाला' में उपसंपादक के पद पर उस सम्मानित तथा मेरी इच्छित राशि पर काम
दिया, जो बहुत
कम को दिया गया था. मुझसे कलकत्ता छुड़ा लेना उन्हीं के सम्मोहक व्यक्तित्व का कमाल
था. और फिर
जो छूटा तो फिर हाथ से निकला सा ही लगता है.
अस्तु, प्रतिभा को एक और औलाद इसलिए चाहिए कि हमने अपनी बेटी को जिस उम्र
में और जिन हालातों में जन्म दिया था उसमें औलाद के बारे में सोचा तक न था. बेटी का हमारे जीवन में पदार्पण
हमारे जीवन में अप्रत्याशित था. और हम दोनों ही यह कहीं न कहीं यह तल्खी से महसूस करते
हैं कि मन से औलाद पाने की आकांक्षा काफी बाद जगी तब तक बेटी उतनी बड़ी नहीं रह गई थी
कि वह गोद में आसानी से समा सके. जब वह अपनी मां की तरह फर्राटेदार उर्दू, मिश्रित हिन्दी और पापा की तरह
ग्रामर की भूलों भरी अंग्रेजी बोलने लगी तो हमें तुतलाने वाली बच्ची चाहिए थी. जिस उम्र में हम उसे रोने से
चुप कराने की तरकीबों के बारे में जान पाए वह शा/ीय संगीत में गायन की भी चार कक्षाएं
पास कर चुकी थी.
इन कविताओं के लिखने की वजह शायद अपनी उस व्यथा को अपनी बेटी की व्यथा में
शामिल करना है जो हमने लगभग मिलती-जुलती सी झेली है. जिन हालातों में मेरा जन्म हुआ
था मेरी मां को मेरे पिता के बारे में जानकारी नहीं थी कि वे कहां हैं. लखनऊ में अच्छी खासी सरकारी नौकरी
उन्हें महज इसलिए रातों रात छोड़कर भागनी पड़ी थी कि गांव के पितृहीन संयुक्त परिवार
के सदस्यों की वे लखनऊ शहर में तीमारदारी करने में कर्जदार हो उठे थे.
मेरी मां को उन्होंने गांव पहुंचा दिया था और रोजगार की तलाश में वे कहीं गुम
हो गए थे. और मेरे
जन्म के महीनों बाद यह पता चला था कि वे मुंबई में हैं. मैंने होश मुंबई में संभाला था, मगर फिर रोजगार पर संकट आया तो
मुझे फिर गांव पहुंचा दिया गया और दीदी को बलिया हमारी ननिहाल में. गांव में पहली कक्षा में जब मैं
पढ़ने गया तो मेरी मां गांव में ही थीं, मगर उसके बाद के दो तीन साल मेरी गर्दिश
के रहे. मां मेरे
बाबूजी के पास मुंबई चली गई थी और वहां से रोजगार के फेर में नागपुर के पास तुमसर. मैंने चौथी की परीक्षा दी और
मैं बलिया से आई मेरे गांव कम्हरियां आई दीदी के साथ गांव के पास के तुमसर में कार्यरत
एक अनजान व्यक्ति के साथ तुमसर पहुंचा था.
ये तीन साल मेरी जिन्दगी के उन सालों मेें से हैं, जिन्होंने छोटे-छोटे सुख और बड़े-बड़े दुख दिए हैं और जो आज भी
मेरा पीछा नहीं छोड़ते. गांव में मेरे लिए कहानियां ही थीं जो मुझे असह्य होती यातना से
किसी हद तक उबार सकती थीं पर जिन्होंने मेरी यातना को बढ़ाया भी. दादी की कहानियां सुनते हुए मैं
सो जाता था. पर नींद
में उन कहानियों की दुनिया में प्रवेश करने के बाद वह दुनिया यथार्थ से अधिक खौफनाक
लगने लगती है. मुझे
भयानक सपने अधिक आते और कई बार नींद टूटने पर भी मैं भय से कांपता रहता और फिर नींद
न आए इसी कोशिश में लगा रहता. मुझे सपनों से डर लगने लगा था, पर नींद से बचने का कोई उपाय
न था.
गांव में दादी के दुलार में कमी न थी, लेकिन और कहीं दुलार न था. बड़ी मां थी, जिसने मेरी मां के प्रति छिपी
अपनी दुर्भावना का शिकार मुझे बनाया था. बड़े पापा उन दिनों इलाहाबाद में थे. गांव आते तो नई चीजें मुझे देखने
को मिलती उसमें सबसे आकर्षक इंक पेन थी. मुझे उन दिनों सुन्दर लिखावट का शौक था
और इस आकर्षण ने मुझे पूरे गांव में चोर घोषित कर दिया था. कमरे में पापा ने जहां पेन रखा
था मैं मौका देख वहां पहुंच गया था और उस पेन को खोलकर देख ही रहा था कि किसी के आने
की आहट ने मुझे ऐसा भयभीत कर दिया कि मैंने पेन अपनी जेब में रख ली थी. और पेन लेकर मैं स्कूल चला गया
था. वहां
एकांत में जाकर मैंने एक कागज पर पहली बार किसी पेन से लिखकर देखा था. उन दिनों लकड़ी की काली तख्ती
दुध्दी से लिखने तक का ही मुझे अनुभव था. मुंबई के दिनों में स्लेट पर पेंसिल से
लिख चुका था जिसका स्मरण भर था. फिर सुंदर लिखावट का नया शौक जगा था.
कागज पर पेन की सुंदर अपनी लिखावट पर मैं खुद विस्मित और रोमांचित था. मैं अपने दोस्तों को वह अपनी
लिखावट दिखाए बगैर नहीं रह सका था. और अपनी चचेरी बहन को भी दिखाए बिना नहीं
रहा जो मेरी ही कक्षा में पढ़ती थी और जिससे मेरी पेन चोरी की कलई खुली.
शाम को घर लौटा तो पेन मेरे बस्ते के हवाले हो चुका था. और मैं घर लौटकर यह भूल चुका
था कि पेन जैसी नायाब कोई चीज भी मेरे हाथ लगी है, लेकिन घर पर यह सबको पता चल चुका था कि
पेन गायब हो चुकी है. और मैं जब तक खेल कर लौटता मेरे बस्ते से पेन बरामद भी की जा चुकी
थी. और मेरे
चोर होने की सार्वजनिक घोषणा भी. मुझसे किसी तरह की पूछताछ नहीं हुई थी. पापा ने एक शब्द भी नहीं कहा
था. (मैं
स्वर्गीय पापा और बाबूजी को एक ही नजर से देखता हूं. इन दोनों भाइयों में एक ही साम्य रहा
कि ये दोनों ता-उम्र इतने भले आदमी बने रहे कि कभी किसी बुराई का विरोध तक करने
की जहमत नहीं उठाई), लेकिन बड़ी ने उलाहनों और व्यंग्य बाणों से बेधने का क्रम जब तक
मैं गांव में रहा जारी रखा. आंगन में जहां रोटियां पक रही होती थीं और खा रहा होता था रोटियां
ही नहीं साथ उलाहने भी परोसे जाते थे. चाची, बुआ, आजी उनकी बातें सुनती रहतीं. मेरे पक्ष में खड़ा होने की आवश्यकता
किसे थी. पड़ोस
की औरतों के आने पर उन्हें इस कार्य में अधिक उत्साह जगता.
ऐसा ही अवसर मैंने उन्हें फिर दे दिया था. चचेरे बाबा (दादाजी) के घर पास के गांव रोआंपार में
किसी विशेष उपलक्ष्य में भोज था. राह में आम के बगीचे थे. घर के ही कुछ और बच्चों की तरह मैंने
भी टिकोरे तोड़ने के ह्निए पत्थर चलाया था, मगर टिकोरा गिरा तो मेरे इकलौते चचरे
भाई ने दौड़कर उठा लिया. तभी एकाएक वह पत्थर भी उसके सिर पर गिर गया जो पत्तों व डाल के
बीच अटका हुआ था. चोट से उसका सिर फट गया और खून निकलने लगा. बड़ी मां का सामना करने से बचने
के लिए मैं वापस घर भाग आया और आंगन में भूसे के कमरे में वहां जाकर जो उसका सबसे ऊपरी
हिस्सा होता है. ऊपरी हिस्से पर आसानी से किसी की नजर नहीं जा सकती थी. भूसा निकालने वाले की भी नहीं.मैं उस अंधेरे कमरे में भूखा
पड़ा रह गया. रात को
लोग परोजन से लौट आए थे, लेकिन चर्चा सिर फटने की ही थी. कहा यह जा रहा था कि चूंकि भाई ने मेरे
द्वारा तोड़ा गया आम ले लिया था इसलिए मैंने उसे जानबूझ कर दूसरे पत्थर से मारा था. खैर चोट गहरी नहीं थी इसलिए थोड़ा
सा खून गिरा था. किसी ने इसकी चिन्ता नहीं की कि मैं कहां हूं. मां ने यही कहा था होगा कहीं. अपनी बला मेरे मां बाप ने उनके
सिर डाल दी है और शहर में मौज कर रहे हैं.
मैं दूसरे दिन भी यूं ही भूसा घर में पड़ा रहा. भूख और प्यास से हालत पतली हो
गई थी. मुझे
बुखार हो गया था. और रह-रह कर मैं निद्रावस्था में चला जाता था और जहां से स्वप्नों की
उस दुनिया में जहां भयानक अजगर मेरा पीछा कर रहे होते थे. नींद टूटने पर भी जिसकी सिहरन
असर करती. पर वह
भूसा घर और उसका दमघोंटू अंधेरा कम असह्य न था और कई बार तो सपने और हकीकत का फर्क
मिटता-सा लगा. वास्तविकता को मैं स्वप्न समझ
बैठा और यह सोचकर संतोष करने लगाकि नींद टूटते ही सब ठीक हो जाएगा. मुझे आंगन में सबकी बातचीत की
आवाज सुनाई देती, मगर वह किसी और ही दुनिया की लगती. दूसरे उस बातचीत में मैं होता
तो भी किसी में मेरे प्रति ममता नहीं थी. नफरत की ये बातें ऐसी चुभतीं कि उसके
आगे यह भूसे की लगातार चुभन मामूली लगती. और मेरे लापता होने के तरह-तरह के कयास लगाए जाने लगे थे. किसी ने मेरे मां-बाप को घर से भाग जाने की सूचना
देने की आवश्यकता पर जोर दिया तो किसी ने मेरे मर-खप जाने तक का अनुमान लगाया. मुझे सबके सामने जाने में इतनी
शर्म आने लगी थी, उससे मृत्यु की कल्पना भली थी.
तीसरे दिन सुबह नौकर ने भूसा निकालते वक्त मेरी छींक की आवाज सुनी तो सबको
मेरे छिपे होने का पता चला तो शर्म जाती रही और जान बची.
यह वही भूसा घर है जिसमें मैंने गांव से विदा होने की एक रात पहले आई आंधी
में गांव के अन्य बच्चों के साथ लूटे गए टूटे आमों को गाड़ दिया था, पकने के लिए. दूसरे दिन तड़के हमें एक मील दूर
मेंहनाजपुर बस पकड़ने कूच करना पड़ा था. बस में बैठने तक मुझे जो कुछ पीछे छूटने
की टीस थी उसमें ले देकर ये आम थे. आज सोचता हूं तो हैरत होती है कि जो बच्चा
चार साल तक एक गांव में रहा उसकी गांव में जमा पूंजी कुल इतनी थी. इसके क्या कारण रहे होंगे यही
महसूस करना मेरी रचनात्मकता की चुनौती भी है और पूंजी भी. मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी वह
आम खोजे, जो उसके
पिता की बचपन की कुल थाती थी.
तुमसर में मुझे जो मां मिली थी वह दूसरी थी. वह नहीं जिसे मैंने बचपन में खोया था. वह अब मेरी नहीं मुझसे छोटे उस
भाई की मां थी, जो इस बीच पैदा हुआ था. जो मुझ जैसे गंवई बेटे की अपेक्षा सभ्य
था. जो खड़ी
हिन्दी बोलता था और उन दिनों अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ता था. मैं तो उन दिनों उस सिलिंग फैन
से भी डरता था कि कहीं वह सिर पर गिर जाए. धूप में दिन भर खेलते रहने से गेहुंआ
रंग सांवला हो गया था और औरतों में मेरी मां बातचीत में कहने लगी थी कि मेरे बच्चों
में यही पता नहीं किस पर गया है.
मैंने सोचा था यहां बड़ी मां से छुटकारा मिलेगा मगर यहां वह मेरी ही मां के
रूप में मौजूद थी. मेरे लिए गांव और तुमसर में कोई फर्क नहीं था. मैं कभी अपनी मां से आत्मीयता
से लिपट नहीं सका. अपने सीने में उसके प्रति तमाम चाहतों के बाद उससे लगातार बेगानापन
महसूस करता रहा. और मैं उसके लिए अब भी सौतेला हूं. अपने पांच भाई-बहनों में पहले सबसे अपेक्षित. और सबसे छोटी बहन एक ही घर में
ब्याही गई तब से दीदी भी मेरी कतार में हैं.
कई बार मुझे लगता है किसलिए चाहिए हमें और संतानें. उन्हें सौतेला बनाने के लिए? मैं अपनी बेटी को उस सौतेलेपन
से बचा कर अपने साथ न्याय करना चाहता हूं. पर मैं उसके साथ न्याय कहां कर पाया? मैंने उसे उसी उम्र में वह सब
झेलने के लिए भेज दिया, जिस उम्र में मैंने यातनाओं का पहला दौर झेला था. मुझे लगा था मेरी मां इस तरह
अपने किए का प्रायश्चित करेगी. मगर नहीं उसने उसके प्रति भी वही रवैया अपनाया जो मेरे
प्रति रहा. मेरी
बेटी के पास वे दादी के किस्से नहीं हैं जो मुझे नसीब थे. दादी के सीने का वह सिरहाना नहीं
मिला, जो मुझे
मिला था.
प्रतिभा ने अपने संगीत की प्रतिभा का विकास किया था. उसे संगीत के कार्यक्रमों में
दूसरे शहरों में अक्सर जाना पड़ता था. मुझे एक ओर विरासत में मिले अपने नाना
के जूट मिलों की ठेकेदारी और उससे समय चुराकर पत्रकारिता को देना था. ऐसे में पांच साल की बच्ची की
देखरेख में मुश्किल पेश आ रही थी. हमने सोचा था कि वह तुमसर में मेरी मां के यहां कुछ वर्ष
रह ले तो सब संभल जाएगा. वहां उससे थोड़ी ही छोटी मेरे मझले भाई की बेटी भी रह रही थी. दोनों का मन साथ रहने से लगा
रहने की पूरी गुंजाइश थी. तुमसर में दूसरी कक्षा में उसका नाम लिखा दिया गया. यह वही कस्बाई शहर है जहां के
अस्पताल में वह पैदा हुई थी. और चौथी पास करने के बाद हम उसे अपने साथ वापस ले गए थे.
मैंने मां से मृदु के बारे में उसी तरह के उलाहने सुने जो मेरी बड़ी मां के
मेरे बारे में थे. मैं यह महसूस कर सकता हूं कि उसने क्या कुछ मन की दुनिया में झेला
होगा. वह उन
पर बहुत कम बात करती है और शायद किसी हद तक भूल चुकी होगी, लेकिन अब उसने कलम पकड़ा है तो
सहसा उसकी पीड़ा मेरी पीड़ा एक हो उठी है.
मैं अपनी शादी के एक साल बाद से यानी चौदह साल से अपने गांव नहीं गया हूं. स्वाभाविक है मृदु ने और उसकी
मां ने भी मेरा गांव नहीं देखा. जहां मैं छोड़कर तो बहुत कम गया था, लेकिन जो वहां से अपने साथ लिए
घूम रहा हूं वह बहुत कुछ है. और यही कुछ मुझसे लिखवाता है.
बेटी तो शहर में आ गई, मगर मेरे संघर्षों में इजाफा होता चला गया था. नाना का सौंपा गया कारोबार मुझसे
नहीं चला. मुनाफे
के बदले कर्ज चढ़ा. व्यवसाय से मैंने मुंह मोड़ लिया और पत्रकारिता के भरोसे ही सम्मानजनक
जिन्दगी जीने की कोशिश करने लगा. मगर पैसे खरचने की आदत बन चुकी थी और महाजनों की सूद दर
तगड़ी थी जो पत्रकारिता से मिले कुल पैेसों से अधिक बैठती थी. नाद प्रकाशन के नाम से साहित्यिक
पुस्तकों का प्रकाशन चलाने की कोशिश की थी, मगर वह चला नहीं.
प्रतिभा ने मदद की मगर वह भी कम पड़ती थी, दूसरे लगातार एक अपराध बोध और हीनता सालती
रही क्योंकि प्रतिभा के संगीत को रुपया कमाने का साधन हमने नहीं बनाना चाहा था. दूसरे संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत
करना उसकी मजबूरी बने न वह चाहती थी और न ही मैं. इन हालातों से बचने के लिए मैंने एक बार
फिर व्यवसाय ठीक से करने का साहस जुटाया और पुराना ट्रक खरीद बैठा, जो कबाड़ निकला. इस कोशिश में इतना छला गया कि
उसे सुधारते-सुधारते
ही जेवर बंधक रखने तक की नौबत आई.
उसे सचमुच कबाड़ के भाव बेचकर फिर कर्ज भरने को तत्पर हो गया. जनसत्ता छोड़ा, दो और अखबारों में जी तोड़ मेहनत
की. संपादकीय
लिखे. दैनिक
स्तंभ लिखे. अनुवाद
के काम किए. बांग्ला
धारावाहिकों और फिल्मों में भी काम का प्रयास शुरू किया. कुछ काम मिलने लगा था. आश्वासनों के ढेर थे. दोस्तों ने साथ दिया तो कवि सम्मेलनों
से भी आय होने लगी. सरकारी प्रतिष्ठानों के हिन्दी दिवस आदि के कार्यक्रमों में निर्णायक
या विशेष अतिथि के रूप में याद किया जाने लगा तो इससे भी कुछ भला होने लगा. कुछेक कथित नामचीन लेखकों की पाण्डुलिपियां सुधारने का
भी काम ले बैठा.इसी बीच मां ने नाना की दी हुई लगभग एक करोड़ की जायदाद के बदले
अपने मैके वालों से साढ़े आठ लाख रुपए लेने का सौदा कर लिया और मुझे मेरा हिस्सा कह
70 हजार
रूपए दिए तो पुराना कर्ज मिटा.प्रतिभा ने पातुलिया का मेरा बनाया पुराना घर बेचकर नया
और मनपसंद घर बनाने की शुरुआत कर दी तो एक बार फिर कर्ज ने हमारा दामन थाम लिया.
इधर कोलकाता में रहने की विवशता को समझ कर वहां के अखबारों ने कम से कम रुपए
में अधिक से अधिक काम लेना शुरू किया, तो दूसरे शहरों में प्रयास करने का निर्णय
भारी मन से ले चुका था. पहली बार नौकरी का आवेदन पत्र दूसरे शहर भेजा तो अमर उजाला' का इंटरव्यू कॉल मिला. चयन होने पर अमृतसर में स्टाफ
रिपोर्टर होकर चला गया. वहां कुछ माह बाद जालंधर में डेस्क पर बुला लिया गया. उपसंपादक का कार्य मेरे जिम्मे
रहा. लगभग
डेढ़ साल पंजाब में गुजारने के बाद कलकता में वापसी की संभावना की बदौलत वेबदुनिया डॉट
कॉम में वरिष्ठ उप-संपादक होकर आ गया.
इस सबके बीच जिन्दगी में जो कुछ पाया उसे याद करने का समय नहीं था. जो कुछ खोया उसे भी. बेटी के प्रति ध्यान न दे पाने
का अहसास टीसता रहता है. छुट्टियों में जब भी जाता हूं, उसके लिए समय कम पड़ता है. प्रतिभा के लिए भी. यह अहसास जरूर होता है कि जब
मैं लगातार उनके बीच बना हुआ था तो वे दिन अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं जब मैं पूरा
एक मुकम्मल दिन और रात केवल उनके बीच गुजारे हों. जैसे एक चक्का था पैर में. प्रतिभा और मृदु से 3 साल से अलग रहते हुए मैंने जो
कुछ पाया है वह इन दोनों को. काम से फुरसत के बाद जो भी समय मिला, इन्हें याद करते हुए और छुट्टियों
में इनके बीच रहकर. इस बीच लिखी रचनाएं भी इन्हीं तनहाइयों और उनके प्रति सोचने की
प्रक्रिया का हिस्सा है.
यह सब लिखते हुए किंचित संकोच हो रहा पर मुझे इन दिनों यह भी लगने लगा है कि
यदि कोई लेखक पाठक को अपनी निजी जिन्दगी के प्रति दिलचस्पी पैदा करने में कामयाब नहीं
हो पाता, तो यह
एक खामी ही मानी जानी चाहिए. किसी लेखक का रचनाकर्म जितना सार्वजनिक होता है, उससे किसी स्तर पर कम निजी नहीं
होना चाहिए. निजता
और सार्वजनिकता का एक खूबसूरत और सम्मोहक तनाव ही लेखकीय कर्म को वह क्षमता देता है
कि वह साहित्य को कभी पुराना और अप्रासंगिक नहीं बनने देता. जहां स्थानीयता और वैश्विकता
का भेद मिट जाता है. यही साहित्य का समयबध्द और समय निरपेक्ष एक साथ बनता है. कभी सार्वजनिकता उसकी ढाल बनती
है तो कभी उसकी निजता.
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