संस्मरण
-अभिज्ञात
मेरे रोमों पर वह आंच आज भी ताज़ा महसूस होती है, जो मेरी दर्ज़न भर डायरियों के
रात भर जलने से उठी थी। मेरी आंखों के आंसू खत्म हो चले थे, पर प्रतिभा की हिचकियां तब भी
रह-रह कर
सुनायी देती रही थीं।. मैं एक-एक कर उन्हें आग के हवाले यूं कर रहा था जैसे सत्यनारायण
की कथा में या विवाह
के मंडप में ‘स्वाहा’ बोलते हुए धूप, दीप नैवेद्य होम किया जाता है. पर यह गति धीमी थी।
जब एक डायरी जल
रही थी मैं दूसरी के सफ़े जहां-तहां से आहिस्ता-आहिस्ता पलटला जाता था और उस दुनिया की
याद में खो जाता था, जो उनमें समाई थी। अपनी लिखी हुई डायरी के उन सफ़ों को जलाते
हुए लग रहा था कि जैसे मैं उस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए खो रहा हूं, जिन्हें मैंने डायरी में लिख
कर जैसे हमेशा के लिए महफूज़ कर लिया था।
मेरी पत्नी प्रतिभा की ज़िद थी या तो मैं रहूंगी या ये डायरियां. मैंने जो जिया सो जिया. अब उन्हें लिख क्यों रखा है? यह गांव से आयी मैट्रिक पास (जिसमें से आठवीं तक ही स्कूल
गयी) 17 साल
की एक भोली-भाली तरूणी
का सवाल था, जिसका
ज़वाब देकर उसे संतुष्ट कर पाने की मेरी तमाम कोशिशें विफल थीं।
उसकी नज़र में मेरे मुहब्बत के कारनामे तो निहायत गंदे थे ही, पर उस पाप की गठरी को घर में
लिख कर रखने का क्या औचित्य है, उसकी समझ के बाहर का मामला था। मैंने बहुत समझाया था कि इन्हें
मैंने इस ढंग से लिखा है कि महज पात्रों और स्थानों का नाम बदल दूंगा तो यह उपन्यास
बन जायेंगे. और या
फिर मैं जब नहीं रहूंगा तब शायद कोई यह जानना चाहे, कि मैंने क्या जिया है, तो उसे मदद मिले. इस पर तो उसे और भी एतराज था. मरने के बाद दुनिया को यह बताना
की आप कितने घटिया इंसान थे. इसका क्या मतलब है? मेरी मुश्क़िल यह थी कि डायरी में केवल
लड़कियों से मुहब्बत की चर्चा ही नहीं थी. दूसरी बातें भी थी. मेरी असह्य यातनाएं थीं. कुछ तस्वीरें थीं, कुछ सूखे हुए फूल. खुशबुएं थीं जो जीने का संबल
बनी. कुछ शब्द
जो मुझे अपनी धड़कनों की तरह जब चाहूं, सुना करता था. खास तौर पर कुछ विशेष दिनों की
तारीखें. पर उसने
मेरी-दो-चार डायरियों में ताक-झांक की थी. और न सिर्फ़ रो-रो कर बुरा हाल कर लिया था, खाना-पीना छोड़ दिया था, बल्कि आत्महत्या के इरादे से
तमाम उल्टी-सीधी दवाएं
भी खा ली थी। उसने मुझे इस कदर डरा दिया था कि मेरी सारी बौद्घिकता विफल थी।
मैंने समझाने की तमाम कोशिशें की कि मैं बदल चुका हूं, यह सब पुरानी बातें हैं, मगर वह डायरियों के पीछे हाथ
धोकर पड़ गयी।
हालांकि मैंने उसे बहुत सख्त हिदायत दे रखी थी कि क़िताबों, मेरे लिखे किसी पन्ने को हाथ
न लगाये. और कोई
भी मुद्रित पृष्ठ रद्दी समझ कर न इस्तेमाल करे और ना ही फेंके. अलबत्ता कोरे सफ़े वह रद्दी के
तौर पर इस्तेमाल करे तो करे. पर जब वह घर में अकेली थी और क़िताबों की आलमारी में तमाम
डायरियां देख कर उसे लगा कि इनमें से कुछ कोरी भी हो सकतीं है. उसने उसके सफ़े पलटे थे।
उसके जी में आया
था कि जो सैकड़ों लोकगीत उसे याद हैं, उन्हें वह डायरी में उतार डाले. और उसे हैरत हुई थी कि डायरियां
भरी हुई थीं फिर तो उसने उत्सुकतावश उन्हें पढ़ना शुरू किया था. और वह डायरियों का ‘किरिया करम’ करके ही
मानी। उन दिनों
वह मेरी ग़ैरमौज़ूदगी में थाली बजाकर गाती थी. और इस बात से अनजान रहती थी कि घर के
बाहर उसका गीत सुनने वालों की भीड़ जुट जाती है।
मैंने बचपन में महात्मा गांधी की जीवनी पढ़ कर डायरी लिखने का शौक पाला था और
लगभग नियमित लिखने का क्रम कई वर्षों तक, इस हादसे के पहले तक रहा।
इस आदत के कारण
मुझे दोस्तों की कमी उतनी महसूस नहीं होती थी. मैं अपनी पीड़ाओं को डायरी के हवाले कर
देता था तो मन हल्का हो जाता था। डायरी में मेरी स्वीकारोक्तियां थीं।
मेरे सपनों की गवाही।
मेरी हमराज़,
जिससे मुझे कतई
कुछ नहीं छिपाया था। धीरे-धीरे जैसे-जैसे मुझमें लिखने की तमीज़ आती गयी ये
डायरियां मेरे लिए आत्म-संवाद का माध्यम बनती गयीं। यह डायरी ही थी जो मुझे कई आत्म
हत्या जैसे ख़याल से भी उबारती रही थी।
मुझे याद है उस रात मैंने बत्तियां गुल कर दी थीं। फ़र्श पर निढाल-सी पड़ी प्रतिभा रो रही थी।
यह इस हादसे के
आगाज़ का तीसरा दिन था। इस बीच वह बहुत कुछ कर गुज़री थी, जिसमें घर छोड़कर जाने के लिए
सूटकेस में कपड़े रखना, दीवार से अपना सिर टकराना, घर के टूटने लायक तमाम बर्तन
और क्रॉकरी की तोड़फोड़ शामिल है और चूहे मारने की दवा भी ट्राई करने के मूड में
थी मगर उसका साहस नहीं जुटा पायी थी। रात के उस अंधेरे में मैंने किचन का बाहरी दरवाज़ा
और खिड़की खोलकर पहले एक डायरी को माचिस की तीलियों के हवाले किया..
और उस जलती हुई
डायरी की धुंधली रोशनी और उठते हल्के धुएं तथा कुछेक टपके आंसुओं से तर आंखों से बची
हुई डायरियों के कुछेक सफ़े पलटता और फिर पिछली लगभग जल चुकी डायरी की आग के हवाले
नयी डायरी को करता रहा। वह रोशनी की हिलती हुई लौ मुझमें आज भी कहीं सलामत है।
मुझे याद है मैंने
अपनी डायरियों को नाम दिया था ‘तीलियां और तल्खियां’। मैंने डायरी में अपने संघर्ष और ग़म ही बयां किये थे बल्कि़ उस सबका ज़िक्र भी था, जो मुझे हताशा से उबारते रहे।
कृषि वैज्ञानिक
अपने मामा रामकुमार सिंह का भी ज़िक्र था, जो कैंसर से बेऔलाद मरे. उन्होंने धान पर कुछ खोजें की
थीं और मेरी तमाम रचनाओं को नष्ट कर देने के लिए प्रेरित करते रहे थे पर सफल नहीं हो
पाये थे. वे मानते
थे लोगों का जीवन विज्ञान से बदला जा सकता है साहित्य से नहीं, पर मेरी एक कहानी सुनकर रो पड़े
थे और उसके बाद मेरे लिखे को जलाने का सुझाव देना बंद कर दिया था पर अब मुझे कभी-कभी लगता है काश मैं वैज्ञानिक
होता तो सचमुच लोगों के हित में कुछ सार्थक कर पाता। साहित्य में तो पता ही नहीं चल
पाता क्या कर रहा हूं...। तो उस रात लगा था कि तीलियां खुद अपनी
लौ में जल जाती हैं. आखिर वे जल गयी और मेरे लिए तल्ख़ियां छोड़ गयीं।
इस तरह के सन्नाटे की रातें मेरी ज़िन्दगी में बहुत कम आयी हैं. अपनी अजन्मी दूसरी बेटी की मौत
की वह तनहा रात कुछ ऐसी ही लगी थी. जब प्रतिभा नर्सिंग होम में थी और मैं
घर पर. मेरे
चित्रकार मित्र अमर पटनायक ने बताया था कि जिस घर में मौत हुई हो वहां लाइट नहीं जलायी
जाती. दीया
जलना चाहिए बस. यह उस रात की तरह भी लगा था जो कई सालों बाद मैंने कोलकाता छोड़ने
से पहले गुजारी थी. प्रतिभा के बग़ैर. चूंकि वह उस रात के लिए पहले ही एक
सांगीतिक स्टेज शो करने की स्वीकृति दे चुकी थी. इसलिए उस कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेती
तो उस पर कानूनी मामला हो जाता. और मुझे दूसरे दिन सुबह मुझे ट्रेन पकड़ना ज़रूरी था
क्योंकि क्योंकि ‘अमर उजाला’ ने जालंधर पहुंच कर ड्यूटी ज्वाइन
करने की तिथि तय कर दी थी। वह रात भर स्टेश कर करती रही थी और
सियालदह स्टेशन
सुबह 11 बजे
वह स्टेशन छोड़ने पहुंची थी. बिछड़ते समय ही मुझे पता चला था कि वह मुझमें किस तरह समा चुकी
है. जिस प्रतिभा
के साथ शुरआती दौर में मुझे लगा था कि इसके साथ जी भी पाऊंगा या नहीं, 12 साल बीतने का बाद यह लग रहा था
कि प्रतिभा के बग़ैर मैं जीऊंगा कैसे? यह वही स्टेशन था, जहां प्रतिभा एक युग पहले
भीड़ में गुम हो गयी थी.. पर अब इस कोलकाता महानगर ने बतौर गायिका एक विशिष्ट पहचान
दी थी. वह दौर
भी आया कि प्रतिभा सिंह की तस्वीरों के पोस्टर दीवारों पर चिपके मिल जाते हैं. टिकट खरीदकर उसका गीत सुनने वालों
से हजारों दर्शकों वाला नेताजी इनडोर स्टेडियम भर गया और फिर टिकट न मिलने पर दर्शक
गेट तोड़ कर भीतर घुस गये थे।
प्रतिभा आज एक लेखक की ज़िन्दगी के तौर-तरीकों को समझ चुकी है, इसलिए अब कोई खौफ़ नहीं रहा आत्मकथा
लिखने का। डायरी वाले हादसे के काफी बाद उसकी नज़र में आये उन प्रेम-पत्रों से भी अब उसे कोई एलर्जी
नहीं रही जो मुझे विभिन्न लड़कियों ने अलग-अलग दौर में लिखे थे
और जिनमें वह ख़त
भी शामिल है, जो अब तक मेरी ज़िन्दगी का आखिरी प्रेम पत्र साबित हुआ है. और जिसके लिखने वाले से प्रतिभा
न सिर्फ़ खुद मिलना चाहती है, बल्कि मुझे भी प्रेरित करती रहती है कि उससे ज़रूर मिलूं. मेरी बेटी भी उन ख़तों को पढ़ कर
उसकी शब्दावली पर हंस चुकी है, जिसने कभी इस तरह का कोई ख़त नहीं लिखा है और ना ही पाया
है. और ना
पढ़ा. अस्तु, मेरे सामने सवाल यह है कि फिर
आख़िरकार आत्मकथा किसलिए. तो इसका लेखन आत्मकथा एक इत्तफाक है. मुझे खुद नहीं मालूम था कि मेरी
ज़िन्दगी कभी दिलचस्प हो उठेगी..मेरी ज़िन्दगी के कई पेचों-ख़म होंगे, मैंने नहीं सोचा था. और जब यह लिख रहा हूं तय नहीं
है कि ज़िन्दगी अब मुझे किधर ले जाने जा रही है. और इसी दौर में मेरे एक लेख को पढ़ कर
शारजाह से अभिव्यक्ति डॉट काम की संपादक पूर्णिमा बर्मन ने आत्मकथा
लिखने को प्रेरित किया है, तो अपनी ज़िन्दगी के कुछ हिस्सों पर मैने निगाह दौड़ाई और
उन्हें लिखना शुरू किया...यह उन दिनों की बात है जब मैं अमर उजाला छोड़कर जालंधर
से इंदौर पहुंच गया था।
अपने लेखन के आरंभिक काल से लेकर कुछ अरसा पहले तक मैं दुनियावी ढर्रे पर
ही यह मानता था कि मैं क्या करने की कोशिश कर रहा हूं, भले मेरे लिए वह अहम हो दुनिया के लिए नहीं है. दुनिया के लिए अहम वह है कि हम क्या करने में कामयाब रहे। दुनिया कामयाबी को ही महत्व देती है. सो जो समाज की स्वीकृत अवधारणा है, मैं भी उसी का शिकार रहा... पर देर से ही इस ग़लती का अहसास हुआ कि क्या मैं इस दुनिया का हिस्सा नहीं! अगर यह बात मेरे लिए माने रखती है कि मंज़िल ही सब कुछ नहीं है, बल्कि कुछ भी नहीं है और यह जो सफ़र हम अपनी तय की गयी मंज़िलों
के लिए करते हैं वही मेरी उपलब्धियां हैं,
तो दूसरे के लिए
माने क्यों नहीं रखती.? अगर मैं दुनिया से अलग नहीं हूं, तो दुनिया से मेरे अलगाव का कोई औचित्य नहीं!! दुनिया मेरा ही हिस्सा है!
दुनिया पर मेरा
भी हक़ है. और वह जो मैं सोचता हूं, जो करता
हूं वह सबसे बांटने में क्या हर्ज़ है।
अगर मैं दुनिया
के बारे में सोचता हूं और यह उचित है तो फिर जो मैं अपने तई जो सोचता हूं, वह दुनिया के लिए क्यों अहम नहीं है। मैंने अपनी रचनाशीलता में दुनिया और अपने बीच की हर दूरी को न
मिटाने की कोशिश की है क्योंकि मेरे मैं होने में केवल
मैं शामिल नहीं हूं। मेरे मैं के होने में कई मामूली
लोगों का होना शामिल है, कई वे भी शामिल हैं, जिन्हें दुनिया ने स्वीकार किया है कि वे मामूली नहीं रहे। जिन्हें वक़्त ने साबित किया है कि वे उनमें से हैं, जो कभी-कभी जनमते हैं। जिनसे मैं नहीं मिला होता तो मैं वह नहीं होता जो मैं हूं। कहीं न कहीं उनका मुझ पर ॠण है। मैंने उस ॠण को शिद्दत से महसूस किया है मेरी कविता ‘सरापता हूं’ में इसकी अभिव्यक्ति हुई है पर कविता की ग़लत व्याख्या हुई है। वह कविता अपनी विरासत से नफरत और छुटकारा पाने की नहीं है, यह उनसे अनहद जुड़ाव की है।
और हैरत है कि यह जो मेरी आवरणहीनता है, इसने
मेरी रचनाशीलता में कुछ ऐसा पैदा किया कि जहां एक तरफ लोगों को शिकायत रहती है कि साहित्य
को लोग नहीं पढ़ना चाहते. वहीं मेरी रचनाओं को पढ़ने वालों
का कहना है कि उनमें से अधिकांश ने कई बार मुझे पढ़ा है। क्यों पढ़ा है यह उनके मनन का विषय है. और मेरे लिए विस्मय का। शायद
उन्हें मुझमें वही मिलता है जो उनमें भी किसी हद तक किसी न किसी रूप में है। यह जो परदादारी है,
उसी को ख़त्म करने
से यह हुआ है।
मैं यह नहीं कहता कि मैंने मामूली आदमी से उठाकर अपने-आपको गैर-मामूली बनने की कोशिश नहीं की। मैं लगातार इसी दौड़ में रहा... पर वह दौड़ आम दुनियादारों की दौड़ से अलग है। लगभग उल्टी दिशा में। जहां
वह होने की कोशिश है, जो हमसे प्रकृति चाहती है और उन हालातों के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष, जो मेरे मैं को मैं बनने से रोकता है। उस दौड़ में जहां आसानियां आसान नहीं है। वह कमाने की कोशिश,
जो बहुत कुछ खोकर
भी मिल जायेगा की नहीं, तय नहीं है।
मैं जानता हूं कि मैं चर्चित लेखक नहीं हूं...जिन अर्थों में किसी को स्थापित लेखक कहा जाता है वह भी नहीं। मैंने कोई उल्लेखनीय या सरकारी पुरस्कार नहीं पाये हैं। मैंने अपनी कृतियों को पुरस्कार के लिए भेज पाता क्योंकि
प्रक्रिया के तहत संस्तुतियां चाहिए..किसके कराऊं जो ज़रा भी स्थापित है वह मुझसे
ही अपनी संस्तुति करा लेता है.. और काफी अरसे तक प्रकाशनार्थ
किसी पत्र-पत्रिका में रचना नहीं भेज पाता.. रचना लिख ली तो लगता है कि काम पूरा हुआ. कई लोग टोकते हैं मैं पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं क्यों नहीं भेजता। ज़िन्दगी में इतमीनान कम ही हो पाया... इंतज़ार करता हूं कि थोड़ा इतमीनान हो
जाये तो रचना भेजूंगा. और मामला टल जाता है. फिर भी अपने लिखे पर यक़ीन है कि कुछ ठीक-ठाक सा लिख लेता हूं। नागार्जुन,
त्रिलोचन, शील, केदारनाथ अग्रवाल, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, कीत्तिनारायण मिश्र,
अवध नारायण सिंह, सकलदीप सिंह, अदम गोंडवी,
विजेंद्र, अरुण
कमल, भारत भारद्वाज, असद जैदी
की प्रतिक्रियाओं से कुछ कुछ आश्वस्ति बोध होती है बात बन रही है..पर मैं चर्चा में नहीं आ पाया
तो इसलिए भी की मैं रह-रह कर साहित्यिक परिदृश्य से
गायब होता रहा. ज़िन्दगी ही ऐसी रही कि कभी मैं
जीने में ऐसा डूब जाता कि रचना की दुनिया से कट जाने को विवश हो जाता.
दरअसल, मेरे सामने दो दुनियाएं रहीं. एक जीवन की दुनिया,
दूसरी रचना की दुनिया. मैं जब सोचता हूं कि मैं क्यों जीता हूं तो मेरे पास इसका सीधा
सरल जवाब होता है रचने के लिए।
इससे सही जवाब मेरे
पास नहीं है. और सचमुच कुछ नहीं है मेरे जीवन का उद्देश्य. और जब सवाल सामने होता है मैं क्यों लिखता हूं मेरे पास जवाब होता
है जीने के लिए. क्योंकि मेरा लिखना ही मेरा जीना
है। मैं उस जीवन की कल्पना नहीं कर सकता जहां मेरे लिखने की
कतई गुंजाइश न हो. मेरा जीवन मेरे लिखने की खुराक
है. जैसे मुझे लिखने के लिए जीवन की असाइनमेंट दी गयी हो. और मेरा लिखना मेरे जीवन का सबब। कभी-कभी तो मैंने महसूस किया है कि
मैंने जो जिया है वह सब अपने अंदर के लेखक के हवाले कर देता हूं और छोड़ देता हूं भूखे
भेड़िये की तरह उसे निगल जाने के लिए।
जो मेरे जीवन का
सारा रस ले जाता है. लेकिन जब अपने जीवन के बारे में
सोचता हूं तो लगता है कि और कुछ नहीं किया है मैंने शायद जो लिखा है वही संचित पूंजी
है। वही मेरी पहचान है। जैसे किस्सों में जादूगर रखता है अपनी जान किसी पक्षी में, मेरी जान मेरी रचनाओं में है।
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