व्यक्ति नहीं संस्था हैं शंभुनाथ

शहूद के बहाने उर्दू वालों की बातें

संस्मरण

-डॉ.अभिज्ञात


शहूद आलम आफ़ाकी. एक ऐसी शख्सियत जो मुझे हमेशा अपनी ओर आकृष्ट किए रही पर मैं चाह कर भी कभी खुलकर नहीं मिल सका. अब उनके जाने के बाद यह बात लगातार सालती रहती है कि अगर किसी के लिए आपके दिल के दरवाज़े खुले हों तो दीवारों की परवाह नहीं करनी चाहिए. वह दीवार चाहे जैसी हो. चाहे जो वजह हो. कम से कम यह तो कह ही देना चाहिए, उससे की वह हमारे दिल में है. दरअसल, हम अपनी नफ़रतों के इज़हार को तो बेताब रहते हैं और मुहब्बतें हमारे कदम रोकती रहती हैं. कोई क्या यक़ीन करेगा कि मैं अपने दोस्तों, जिन्हें पढ़कर पसंद किया, जिन्हें सुनकर चाहा है उनसे अपने दिल की बात तो नहीं कह पाता मगर यह न छिपाव मुझे बेइंतहा बेचैन किए रहता है. शहूद के न होने पर जो बेचैनी है वह मुझे अपनी इस फ़ितरत पर गौर करने को विवश कर रही है. और निज़ात पाने को उकसा भी रही है.
शहूद को मरणासन्न हालत में शायद मैं देख भी सकता था. योजना बना कर टालता रहा. यक़ीन भी कहां था कि सचमुच वे नहीं रहेंगे? इतना तय कहां होता है आदमी की ज़िन्दगी का कि हम सुनें की वह हो सकता है कि नहीं रहे और सचमुच चला जाए. पिछली बार कोलकाता गया था, तो महज नौ दिन की छुट्टी लेकर. तीन-चार दिन जिसमें से आने-जाने के ही ठहरे. बाकी बचे दिन मृदु (बेटी मृदुला सिंह) और प्रतिभा (भोजपुरी और कव्वाली गायिका तथा पत्नी प्रतिभा सिंह) के लिए ही कम पड़ रहे थे. जो दो महीने मैं इनके बगैर गुज़ारे थे किसी तरह उसकी क्षतिपूर्ति की बेताबी मुझे हमेशा रही है. यहां तक की अधिक सोने से डरता हूं. नींद से भी कटौती कर कुछ और लम्हे साथ के पाने की कोशिश रही है. और फिर इन दोनों के बगैर इंदौर में एक उदास ज़िन्दगी मुझे जीनी होती है, अगली छुट्टियों तक. पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था. प्रतिभा ने मुझे बताया था कि शहूद भाई बीमार चल रहे हैं. उनके इलाज के लिए उर्दू एकेडमी ने कुछ रकम दी है. उनके मोहल्ले बेलगछिया-कोलकाता के लोग भी मदद कर रहे हैं. वह भी कुछ देना चाहती है. उसने बताया की वह पांच सौ देना चाहती है. मेरा मन था कि कम से कम इससे दूने दिए जाएं पर घर का बजट जोड़ा गया तो वह फेल साबित हुआ. इतने की गुंजाइश भी किसी तरह ही निकलती थी. सो प्रतिभा ने इतने ही दिए थे सलीम भाई (हाजी सलीम नेहली- कव्वाल) के हाथ. सलीम भाई ने ही बेलगछिया में उनकी आर्थिक मदद का वह बीड़ा उठाया था. खबर मिलने पर मैंने भी सलीम भाई से फोन पर शहूद का हाल पूछा था. और फिर तय किया था कि उनके घर बेलगछिया जाऊंगा और फिर उन्हीं के साथ शहूद भाई को देखने अस्पताल जाऊंगा. पर व्यस्तताएं ऐसी रहीं कि इस अख़बार के दफ्तर से उस अख़बार के दफ्तर का चर, इस दोस्त के यहां से उस दोस्त के यहां जाने के सिलसिले में न तो सलीम भाई के घर जा पाया और न शहूद से मिल ही सका. दो महीने बाद फिर इंदौर से कोलकाता पहुंचा तो प्रतिभा ने वह पत्रिका थमा दी थी जो शहूद की याद में उर्दू में निकली थी.
शहूद से लगभग आठ नौ-माह पहले अंतिम मुलाकात हुई थी महानामा इंशा' (उर्दू की साहित्यिक पत्रिका) के दफ्तर में. वहां मैं पहले से बैठा हुआ था. फ़े सिन एज़ाज़ के साथ. एज़ाज़ साहब मेरे न सिर्फ दोस्त हैं, बल्कि हम पियाला भी रहे हैं. हमारी जितनी मुलाक़ातें हैं उनमें से आधी में मैं उनका मेहमान रहा हूं मैकदे का. कभी कलकत्ता प्रेस क्लब तो कभी कोई और उम्दा बार. जब मैं कोलकाता में रहा तो भी और कोलकाता से बाहर अमृतसर, जालंधर या इंदौर. उनके व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया. मैं नहीं जानता उनकी नज़र में मेरी लेखनी की क्या कीमत है मगर उन्होंने कुछेक बार मेरी कविताएं मांगी और उन्होंने उसका उर्र्दू में तर्जुमा कर प्रकाशित भी किया. मुझे उर्दू पढ़नी नहीं आती. प्रतिभा पढ़ लेती है. यह ज़रूर है की मेरी राय मान कर एज़ाज़ साहब ने न सिर्फ अपनी ग़ज़लों का एक संग्रह मौसम बदल रहा है' देवनागरी लिपि में प्रकाशित किया, बल्कि पुस्तक में इस बात का इजहार भी किया है कि देवनागरी में पुस्तक के निकलने के पीछे मेरी भी भूमिका रही है. इंशा के संपादक और शायर एज़ाज़ साहब वही हैं, जिनके बारे में मुझसे जनसत्ता' के लिए अपने दिए गए इंटरव्यू में उर्दू एकेडमी के चेयरमैन और बुजुर्ग शायर व दैनिक आबशार' के संपादक सालिक लखनवी ने कहा था कि उसकी इतनी किताबें निकली हैं, पता नहीं चलता है कि वह इतना लिखता कब है. वह रचनाओं का कारखाना है या आदमी?
सालिक साहब के यहां मैं उनसे मिलने के अलावा एक और भी वजह से कुछेक बार गया हूं वह वजह है उनका बेटा वासिम कपूर. चित्रकार. जिनसे कुछेक मुलाकातों में यारी-सी हो गई. पर जैसे उनकी लोकप्रियता बढ़ी उनके यहां जाना कम हो गया. उधर से गुजरते हुए कभी उनके यहां एकबारगी पहुंचा तो पता चलता जनाब फ्रांस गए हैं. वहां उनकी प्रदर्शनी चल रही है. यह चार-पांच साल पुरानी बात है. इधर वासिम की चर्चा इस बात को लेकर उठी की फिल्म अभिनेत्री मुनमुन सेन उनसे अपना न्यूड बनवाने की फिराक में हैं. हालांकि उन दिनों भी वे न्यूड अच्छा बनाते थे, किन्तु अपनी क्राइस्ट सीरिज की पेंटिंग पर बात करना पसंद करते थे. उन्होंने अपनी बनाई कुछ पेंटिग्स के छायाचित्र भी मुझे दिए थे, जो जनसत्ता में छपे.
ये वही एज़ाज़ साहब हैं जिनके बारे में सुपरिचित ग़ज़ल गायिका और मेहंदी हसन साहब की शिष्या कुमकुम (भट्टाचार्य) उर्र्दू भाषा की गुर मानतीं हैं. कुमकुम ने उनकी कुछ ग़ज़लों की अच्छी बंदिशें बनाई हैं, जिन्हें मैंने ग़ज़ल की महफ़िलों में गाते सुना है. और मैं वह उनकी नज्म याद नहीं कर पा रहा हूं, जो उन्होंने मुझे अख़बार में प्रकाशित करने के लिए बार की गुलाबी कागज के नेपकीन पर लिखवाई थी, जो उन्होंने भारत के परमाणु परीक्षण बुध्द मुस्कुराए' की घटना से प्रभावित होकर लिखी थी. उन्हें देवनागरी लिखनी नहीं आती और केवल टाइप की गई देवनागरी ही पढ़ पाते हैं. और यह वही एज़ाज़ साहब हैं जिनसे अपनी मुफ़लिसी के दिनों में मैंने कंपोज़िंग करने के पैसे लिए थे. (वह कमल सियालकोटी का ग़ज़ल संग्रह था. पता नहीं वह छपा भी या नहीं?) ये वे दिन थे जब मैं अपने कारोबार को पूरा तबाह कर चुका था और पत्रकारिता के बूते घर चलाने की कोशिश में लगा हुआ था. यह तो ग़नीमत थी कि मुझे और उससे बढ़कर खुद को शर्मसार होने से बचाने के लिए उन्होंने वह रकम अपने बेटे के हाथों मुझे दी थी.
एक बार पैसा लेने के बाद मैं दुबारा उस काम पर जाना तो दूर महीनों उनसे बचता रहा था. वे बार-बार फोन पर मुझे बुलाते रहे थे. उन्हें शायद यह भी खटका था कि उन्होंने रकम कम दी है. पर बाद में कभी हमारे बीच उसका ज़िक्र नहीं आया. एज़ाज़ साहब के यहां ही उस कमाल ज़ाफरी मेरी मुलाकात हुई, जिन्होंने मुझे उसी लड़की के सामने ज़लील किया था, जिस पर मैंने ग़ज़लें लिखी थी. वह भी वहां काव्य-पाठ के लिए बुलाई गई थी. उन्होंने उसके और कुछेक और लोगों के सामने थानेदारों की तरह पूछा था, तुम हिन्दी वाले हो ग़ज़लें कैसे लिखते हो? मैंने मायूसी से पर उस लड़की सुनाने के लिए ज़वाब दिया था- दिल से. ग़ज़ल उर्दू या हिन्दी ज़ुबान नहीं दिल की जुबान है.' वे मजाक उड़ाने के मूड में लगे थे. मेरी ग़ज़लों को पढ़ने से पहले ही उन्होंने पेन निकाल ली थी और उसका मीटर चेक करने लगे. फिर शब्दों के अर्थ पूछने लगे. उन्हें यक़ीन हो चला था कि मैंने कहीं से किसी की ग़ज़लें चुरा ली है. उन्होंने कहा था कि मुझे जो ग़ज़लें याद हों अपनी लिखी सुनाऊं . उस समय एकाध शेर को छोड़ कर कुछ भी याद नहीं आया. वह तो मैेंने जब कहा कि मेरी कविताओं की कई किताबें हिन्दी में छप चुकी हैं मैं भला चोरी की क्यों सुनाऊंगा. और इस स्थिति का मज़ा ले रहे रंगकर्मी और आकाशवाणी के प्रीलांसर मदन सूदन ने बात संभाली तो मैं उस दिन अपनी ग़ज़लें रिकार्ड करा पाया. हालांकि उर्दू के अच्छे जानकार मदन भाई भी इस स्थिति से गुज़र चुके हैं जब उन्हें दूरदर्शन पर उर्दू मुशायरे का संचालन किया तो बगैर जाने यह आरोप लगे कि उर्दू नहीं जानने वाले को उर्दू कार्यक्रमों का संचालन क्यों करने दिया जा रहा है.
इसके बाद ही कमाल साहब से मेरी मुलाकात हुई थी एज़ाज़ साहब के यहां. एजाज साहब ने जब मेरा परिचय यह कह कर उनसे कराया कि यह मेरे अजीज दोस्त और हिन्दी के अच्छे शायर हैं तो उन्होंने हाथ यूं मिलाया गोया हम एकदम अपरिचित हों.मैंने भी उन्हेंं नहीं टोका. दरअसल, आकाशवाणी की घटना मेरे लिए आहत करने वाली ही नहीं थी, बल्कि मेरे लिए एक सर्टीफिकेट भी थी कि ग़ज़ल मैं कुछ ठीक-ठाक लिख लेता हूं. वरना वे शक ही क्यों करते?
यह तो बाद में पता चला था कि यह उनके स्वभाव का हिस्सा था. वे मज़ा लेने के लिए दूसरों का क्या ख़ुद तक का मज़ाक बना सकते थे. जब कोलकाता आकाशवाणी में हिन्दी और उर्दू दो विभाग हो गए तो श्रीप्रकाश जी हिन्दी विभाग देखने ह्नगे. वहां मैंने श्रीप्रकाश जी, उद्धोषक प्रीतम खन्ना और अनिल कुमार की फ़रमाइश पर कुत्ते, बिल्ली तक की आवाज निकालते सुना. और एक दिन बस में हम साथ थे तो उन्होंने यह वादा किया कि आकाशवाणी के उर्दू विभाग की ओर से महाजाति सदन में एक मुशायरा होना है जिसमें वे मुझे अवश्य बुलाएंगे.
और यही एज़ाज़ साहब हैं जिन्होंने बांग्ला कवि सुब्रत मुखर्जी से मेरी मुलाकात प्रेस क्लब में इस तरह से करवाई कि आज भी कोलकाता में सबसे महत्वपूर्ण हिन्दी कवि किसी को मानते हैं तो वह मैं ही हूं-अभिज्ञात. मदन भाई ही बता रहे थे पिछली मुलाकात में. मदन भाई ने मुझसे पूछा था कि कोलकाता में वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण कवि किसे मानते हो तो मैंने तीन नाम ह्निए थे-एक अक्षय उपाध्याय जो, अब हमारे बीच में नहीं हैं.दूसरे सकलदीप सिंह, पर वे वर्तमान के नहीं भविष्य के देश के सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं, मेरी नज़र में. कभी मुक्तिबोध की तरह वे भी याद किए जाएंगे. अभी उपेक्षित हैं. पर इस प्रकार वर्तमान तो आलोक शर्मा की कविताओं का हैें. वही आलोक जी जो कभी श्रीकांत वर्मा के प्रिय कवि रहे और जिनके साथ तीसरी दुनिया के साहित्यकारों की कोई संस्था भी उन्होंने बनाई थी.
अद्भुत स्मरण शक्ति, काव्य-पाठ का भाव-प्रवण कौशल और शब्दों की मारक प्रहार क्षमता वाले आलोक. जिन्होंने पचास साठ किलो वजन के कागज़ों पर शायद अभ्यास के लिए कविताएं लिख मारी होगी. कहते तो यही हैं. उनकी कविता का चेहरा मुझे वैश्विक लगता है पर उसमें से स्थानीयता गायब है. इसलिए उन्हें मैं कोलकाता का ही महत्वपूर्ण कवि भर मान पाता हूं.
मदन भाई का जवाब था कि वे खुद भी यही मानते हैं कि आलोक ही कोलकाता के महत्वपूर्ण कवि हैं, पर सुब्रत मुखर्जी की निगाह में अभिज्ञात है. मैं जानता हूं यह एज़ाज़ साहब का कमाल है.
विषयांतरित हो गया. बात शहूद की चल रही थी. शहूद से आखिरी मुलाकात के दौरान एज़ाज़ साहब ने दूसरी दफ़ा मेरा परिचय शहूद भाई से कराया था. शहूद हंसे थे. और कहा था अरे भाई मैं इन्हें खूब पहचानता हूं. मैंने इनसे अपनी पत्रिका के लिए कई बार रचनाएं मांगी है.पर ये मुझे देते ही नहीं.मुझे तो हिन्दी पढ़नी आती नहीं. कहता हूं कभी साथ बैठो तो समय नहीं देते.
और शहूद के सामने ही एज़ाज़ साहब ने बताया कि इनकी किताब उर्दू एकेडमी के आर्थिक सहयोग से छप रही है. ये उस क़िताब की चौथी प्रति की एडवांस कीमत वसूल गए. इसके पहले तीन प्रतियों की रकम ले चुके हैं.
शहूद के जाने के बाद उन्होंने कहा कि यह पीने के लिए पैसे लेने का नया तरीका है. इसके पहले यह बहाना नहीं था, तो सीधे पीने के लिए पैेसे ले जाते थे. अब आप बताइए मैं एक ही किताब की चार प्रतियां क्या करूंगा. पर इंकार नहीं कर सकता. यह इनकी पहली क़िताब छप रही है. एज़ाज़ साहब के यहां शहूद की अनियतकालीन उर्दू पत्रिका शहूदी' का कवर छपता था. एज़ाज़ साहब ने अपनी पत्रिका महानामा इंशा का एक नंबर (विशेषांक) भी शहूद पर अरसा पहले निकाल चुके थे. एज़ाज उन दिनों मानते थे कि शहूद आदमी तो एहसान फरामोश हैं, पर शायर बड़े हैं. हमारी तो सैकड़ों की पी जाते हैं पर अपने पाई-पाई का हिसाब रखते हैं.
सलीम भाई से ही शहूद के बारे में जाना था कि वे ट्राम में कंडेक्टर हैं. कई बेटियों के बाप हैं. मुफ़लिसी है. उन्हें अक्सर सलीम भाई के यहां मैंने देखा. वे कुछ नया लिखते तो उसे सबसे पहले सलीम भाई को सुनाते. शहूद को लोकप्रिय करने वालों में सलीम भाई का बहुत हाथ रहा है. उनकी कई ग़ज़लों को उन्होंने कव्वाली की महफ़िलों में गाया. और मेरा अनुमान है समय-समय पर वे शहूद की आर्थिक मदद हमेशा करते रहे. शहूद की लिखी गजल शहर में एक भी बच्चा नहीं रोने वाला/ दाने-दाने को तरसता है खिलौने वाला.' तथा सिर उठा के मत चलिए आज के ज़माने में/ जान जाती रहती है हौसला दिखाने में.'
जैसी गंभीर ग़ज़लों को भी सलीम भाई ने महफ़िलों में पेश किया है और लोग इसे सुनते हैं. और यक़ीनन सलीम भाई से हमारी क़रीबी ही यह वज़ह रही कि प्रतिभा भी शहूद की कुछ ग़ज़लें गाती है. वरना संजीदा ग़ज़लों को वह गाना पसंद नहीं करती. उसका अपना मानना है कि पब्लिक पसंद नहीं करेगी. वह महफ़िल नहीं जमा सकती. उसके प्रिय शायर हैं रज़ा जौनपुरी. हालांकि वह क़तील शिफाई, बशीर बद्र और राहत इंदौरी को भी गाती है. पर न तो मेरी कोई ग़ज़ल उसने गाने लायक समझा न एज़ाज़ साहब की. हमारे बारे में उसकी बिन मांगी सलाह है कि जगजीत सिंह, गुलाम अली और पिनाज मसानी को हम अपनी ग़ज़लें भेजें.
उनके श्रोता तो वे हैं जिन तक केवल सीधी बात ही पहुंचती है. साहित्यिक रचनाएं अपनी बात शब्दों में छिपाने की कोशिश करती हैं और पर वे वह गाते हैं जो बात को अतिशयोक्ति तक जाकर दिखाए.
रज़ा जौनपुरी ऐसे शायर रहे हैं, जो कव्वाली गायकों की फ़रमाइश पर भी लिखते रहे. उनका ज्यादातर लेखन फरमाइशी है. मैेंने किशोरवय में ही उनकी लिखी ग़ज़ल को कव्वाली की महफ़िल में सुना था-दिल जलाने का ये ढंग भी खूब है दिल जलाने को तुमने ये क्या लिख दिया/ख़त तो लिक्खा मगर और के नाम पर और लिफाफे पे मेरा पता लिख दिया.'
रज़ा साहब जब पहली बार मेरे घर आए तो मेरी दो ग़ज़लें खा गए. जी हां. वे उस दौर में आए थे जब मेरा कारोबार तबाह हो चुका था और मैं अपना ट्रक बेच चुका था. वे बगैर पूर्व सूचना के यकायक आ गए थे. अपने परिचितों के दबाव पर वे प्रतिभा को कुछ कम खर्च पर अपने शहर में आयोजन के लिए राज़ी करने आए थे. बेटी का गुल्लख तोड़ कर जो कुछ निकला था उससे एक दिन पहले ही घर में चावल-दाल आदि आया था. सो यह गुंजाइश नहीं निकल पा रही थी कि उनकी अच्छी खातिर कैसे हो. खुद मांसाहारी होने के कारण हम जानते थे कि जब तक कुछ मांसाहार न हो अच्छी से अच्छी ख़ातिरदारी कुछ फ़ीकी ही लगती है. पर ऐसा संजोग की अभी उन्होंने चाय ख़त्म नहीं की थी कि डाकिया आ पहुंचा और उसने तीस रूपए थमा दिए. सन्मार्र्ग' दैनिक की ओर से दो ग़ज़लों का यह मानदेय था. दस वर्ष पहले यह रकम एक मुर्गे के लिए पर्याप्त थी.
अस्तु, प्रतिभा ने ले देकर मेरी एक भोजपुरी ग़ज़ल को महफ़िलों में गाया है मगर कैसेट की रिकार्डिंग के लायक उसे भी नहीं माना. और उसी ने क्या अब तक किसी ने भी नहीं. दो ग़ज़लें वेणु दास ने आकाशवाणी कोलकाता पर गाई भी तो एक नामालूम शायर के रूप में वह प्रसारित की गई. गायक वेणु दास से मेरा परिचय उस दौर में हुआ था जब मैं नया-नया कोलकाता पहुंचा था. पहली दोस्ती हुई लक्ष्मी प्रसाद से, जो रंगकर्मी हैं. वे उन दिनों नाटय संस्था अनामिका' से जुड़े हुए थे, पर वे श्यामानंद जालान के पदातिक' के लिए भी अभिनय करते थे. वे कभी-कभी स्वयं भी कुछेक संस्थाओं के लिए नाटकों का निर्देशन करते थे. बांग्ला भाषा के रंगकर्मियों के बीच भी उनकी पैठ थी. कई बार मैं उनके साथ नाटकों की रिहर्सल में भी जाता था. उनके साथ एक नाटक में शताब्दी राय भी थी, जो अब बांग्ला फ़िल्मों में हिरोइन है, शताब्दी को मैंने रिहर्सल में करीब से देखा था. लक्ष्मी प्रसाद ने उन्हीं दिनों एक बांग्ला नाटक का हिन्दी अनुवाद किया था -करैला करैली. वे चाहते थे कि इसमें गाने भी हों. मैंने उनके लिए नाटक की सिचुएशन पर 9 गाने लिखे थे. जिसकी धुन बनाने का काम उन्होंने वेणु दास को दिया था. इसके काफी दिनों बाद उनके खुद के लिखे नाटक के लिए भी मैंने कुछ गाने लिखे. जिसका संगीत निर्देशन प्रतिभा ने दिया. यह नाटक ज्ञानमंच में मंचित हुआ था.
करैला करैली के सिलसिले में मैं लक्ष्मी प्रसाद के साथ वेणु दास के घर कुछेक बार गया. फिर तो वे मेरे दोस्त ही बन गए. वेणु दास की आवाज़ में माधुर्य था. शास्त्रीय संगीत की तालीम वे ले चुके थे. हिन्दी टूटी-फूटी बोलते थे, पर वे बनना चाहते थे ग़ज़ल गायक ही. फिर तो यह होने लगा कि मैं ग़ज़लें लिखता और हर दूसरे दिन उनके घर पर घंटों पड़ा रहता. वे एक-एक ग़ज़ल की कई धुन बनाते. उच्चारण दोष ठीक करते. और घर पर ही जिनको वे संगीत की तालीम देते उन्हें वही ग़ज़लें सिखाते. मेरा खयाल है ऐसी पचास ग़ज़लें होंगी जिनकी एकाधिक धुनें उन्होंने उन दिनों तैयार की थी. वे आकाशवाणी कोलकाता के एप्रूव्ड ग़ज़ल गायक थे. इस बीच उन्हें गाने का कार्यक्रम मिला तो वे मेरी लिखी ग़ज़लें ही तैयार करके गए थे.
पर उनके प्रसारण के दो दिन पहले ही उन्होंने मुझे बता दिया था कि ग़ज़लों के साथ मेरा नाम नहीं जा रहा है. वह किसी अज्ञात शायर की लिखी ग़ज़ल बताई जाएगी. उसका कारण यह था कि नियम यह बताया गया कि आकाशवाणी के एप्रूव्ड शायरों की ग़ज़ल ही गाई जा सकती है. सो मेरी ग़ज़लों पर एतराज उठा तो उन्होंने क़तील शिफाई के नाम पर मेरी दो ग़ज़लें गा दी. जिससे की वादक दिलचस्पी लेकर बजाएं. वह फार्म जिसमें शायर का नाम दिया जाना था वहां नामालूम लिख दिया. उसमें से एक ग़ज़ल थी-नंगे पांव चल के मैं आया था धूप में/ तू था किसी दरख्त का साया था धूप में.' और दूसरी ग़ज़ल थी- क्यों तुझे इतना फ़ासला सा लगे. मुझको ख़त लिखना इक ख़ता सा लगे. कल तू छत पर नज़र नहीं आया/ वाक़ई ये तो हादसा सा लगे.' वेणु दास की संगत से मुझे यह लाभ हुआ कि मैं धुन पर लिखना सीख गया. कई बार होता यह था कि वे कोई धुन पहले तैयार कर लेते थे और मुझे उस पर ग़ज़ल लिखनी पड़ जाती थी. या फिर यह भी होता था कि मुझसे मुलाक़ात के पहले उन्होंने कुछ प्रसिध्द शायरों की ग़ज़लों की उन्होंने अपनी धुनें बनाई थी उन धुनों पर मुझसे ग़ज़ल लिखने की फ़रमाइश कर देते.
उन्हें बांग्ला गाने के ऑफ़र बहुत मिलते थे मगर वे उसमें रूचि न लेते. उनका ख्वाब रहा है ग़ज़ल गायक बनने का. और फिर वह दिन भी आया कि वे एक होटल के कमरे में टी सिरीज के गुलशन कुमार को दो मिनट के लिए अपनी ग़ज़ल सुनाकर दिल्ली पहुंचने का आमंत्रण पा गए. जिन ग़ज़लों की धुन उन्होंने पिछले दो वर्षों में मेरे सामने तैयार की थी लेकर दिल्ली कूच कर गए. लौटे तो पंद्रह दिन बाद. महंगा म्यूज़िक सिस्टम लेकर. उन्हें रिकार्डिंग के एवज में टी सिरीज से मिला था. बताया कि पंकज उधास ने उन्हें पहले रिजेक्ट कर दिया. उनका मानना था कि जो उर्दू बोल नहीं सकता वह ग़ज़ल क्या ख़ाक गायेगा. वह तो किसी तरह उन्हें फिर से सुनने के लिए अनुराधा पौडवाल तैयार हो गईं तो उन्हें गाने का ब्रेक मिला. शर्त यह भी थी कि उनकी ग़ज़लें तभी रिकार्ड की जाएंगी जब वे बांग्ला भी गाने को तैयार हों. ग़ज़ल का कैसेट निकालने के लोभ में उन्होंने बांग्ला भजन और राष्ट्रीय भावनाओं वाले दो कैसेट के लिए गाया. इनकी रिकार्डिंग तो दिल्ली में हुई पर ग़ज़ल के लिए उन्हें मुंबई ले जाया गया था जहां सन्नी देओल के सन्नी स्टूडियो में उनकी ग़ज़लों की रिकार्डिंग हुई. इनमें चार ग़ज़लें मेरी थी. और दो महीने के भीतर उनके बांग्ला गीतों के दोनों कैसेट बाजार में थे. भजन का कैसेट चरणे तोमार' तो लोकप्रिय भी हुआ. पर ग़ज़लों का कैसेट आज तक बाज़ार में नहीं आया. और उनका ग़ज़ल गायक के तौर पर यशस्वी होने का सपना अधूरा ही रह गया.
एक बात और गौरतलब है कि वेणु दास ने टी सीरिज में अपने जो गाने रिकार्ड करवाए उसमें उन्होंने अपना नाम बदल दिया. वे वेणु दास से तपन दास हो गए थे. जो किसी ज्योतिष की सलाह पर उन्होंने किया था. इस नए नाम से भी वे उभर नहीं पाए. पिछली बार जब मैं कोलकाता गया था तो वे आए मेरे घर बरसों बाद. बताया कि गायकी से निराश होकर वे अनाज का व्यवसाय करने लगे हैं. और व्यवसाय चल निकला है. थोड़ी सम्पन्नता आ गई है. वे एक बार फिर ग़ज़ल का कैसेट अपने पैसे से निकालने के मूड में हैं. मुझसे कुछ नई ग़ज़लें भी मांगी. एक बात यह रह गई कि उनके पास मेरे परिचय के पूर्व जो ग़ज़लें थीं जिसकी उन्होंने धुन बनाई थी उसमें एक ग़ज़ल थी- सबके दिल में समाना नहीं चाहिए. ख़ुद को तोहफ़ा बनाना नहीं चाहिए. जिस बलंदी पे इन्सान छोटा लगे. उस बलंदी पे जाना नहीं चाहिए. यह ग़ज़ल किसी और ने अपनी रचना बताकर उन्हें दी थी यह शहूद आलम आफ़ाकी की थी. शहूद जीते जी मिथ बन गए थे.
यूं तो शा/ीय संगीत के गायक सुदामा सिंह ने भी मेरी दर्जन भर ग़ज़लों की धुनें तैयार की थी, मगर उन्हें भी भोजपुरी गीतों के कैसेट से ही संतोष करना पड़ा कोई म्यूज़िक कंपनी उनकी गाई ग़ज़लों का कैसेट निकालने को तैयार नहीं हुई. और यही हाल मनोज तिवारी मृदुल का रहा. मनोज महफ़िलों में भोजपुरी गीत और ग़ज़ल में गाते थे. उनके एक रिश्तेदार साधुशरण तिवारी ओएनजीसी में हैं. उन्होंने मुझे कड़की के दिनों आर्थिक संरक्षण दिया था. ओएनजीसी के हिन्दी आयोजनों में न सिर्फ उन्होंने मुझे निर्णायक रखा था, बल्कि कवि-सम्मेलनों में भी बुलाकार पैसा दिया. मेरी किताबों के सेट भी ख़रीदवाए. उन्हीं के कारण मनोज मेरे संपर्क में आए मुझे सुना और मेरी ग़ज़लें मांगी. मेरी कुछ ग़ज़लों की तो उन्होंने बहुत अच्छी धुन तैयार की थी-बातों-बातों में जो ढली होगी/वो रात कितनी मनचली होगी.' वे कभी -कभी मेरे घर भी आते थे और एक बार हारमोनियम पकड़ लेते तो दो तीन घंटे बाद ही छोड़ते. उन्होंने अपनी बहन के नाम पर एक म्यूज़िक कंपनी भी शुरू की थी माधुरी प्रोडक्शंस के नाम से. अपने साथ गाने के लिए उन्होंने प्रतिभा को कई बार आमंत्रित किया, मगर वह तैयार नहीं हुई. प्रतिभा के कुछ कैसेट तब तक बाजार में आ चुके थे. वह दूसरी ज़गह गाकर अपनी कंपनी को नाराज़ नहीं करना चाहती थी. इस इंकार से उपजे हालात को मैंने किसी तरह संभाला तो फिर एक घटना ऐसी घटी की मनोज से फिर मिलना नहीं हो पाया. वे बनारस में एक प्रोग्राम में प्रतिभा को ले जाने की हामी अपनी ओर से भर आए थे. रकम इतनी कम थी कि प्रतिभा उस पर जाने को तैयार नहीं हुई. उसके बाद तो मनोज कभी हमारे यहां नहीं आए न ही उनका फ़ोन. प्रतिभा के फेर में वे मुझसे भी ख़फ़ा हो बैठे थे. इधर साधुशरण तिवारी का कोलकाता से मुंबई ट्रांसफर हो गया तो उनसे भी संपर्क टूट गया.
मनोज की अपनी कंपनी से तो उनके कई कैसेट आए थे पर बात नहीं बनी थी. आम लोगों के बीच उसकी स्वीकृति नहीं मिली. मगर इसी बीच टी सिरीज ने उनका कैसेट निकाला तो वे सहसा पॉपुलर हो उठे पर एक भोजपुरी गायक के तौर पर. वे बातचीत में कहते भी थे कि मैं दो राहे पर खड़ा हूं एक तरफ भोजपुरी गीत हैं दूसरी तरफ ग़ज़ल. ग़ज़ल में कांपीटीशन बहुत है. भोजपुरी का रास्ता आसान है. जाहिर है उन्होंने आसान राह चुनी है. जालंधर में मेरे आवास स्थल के पास ही कैसेट की दुकान थी देखता रहता था मनोज के कई कैसेट बाज़ार में उपलब्ध थे.
'बाहरवाली' तो अक्सर बजता ही रहता था. इस बीच कोलकाता गया था तो अख़बारों में विज्ञापन देखा की मनोज भी अन्य गायकों के साथ नेताजी इंडोर स्टेडियम में गाने आ रहे हैं. दिल में बात उठी की शायद वे अबकी आएं या फ़ोन करें पर यह नहीं हुआ.
कवि-सम्मेलनों के अलावा कभी-कभार मुझे भी मुशायरों में बुला लिया जाता था. ऐसे ही कार्यक्रमों में मेरी मुलाकात शायरा रेहाना नवाब से हुई. रेहाना का गला अच्छा है. वे जब अपनी दर्द भरी आवाज़ में मंच पर ग़ज़ल सुनाती हैं तो समय रूक-सा जाता है. पहली बार तो उन्हें मैंने बिरलापुर में सुना था. वह काव्य-पाठ का अद्भुत कार्यक्रम था, जिसमें बांग्ला कवि सुभाष मुखोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय, उर्दू से रेहना नवाब और हिन्दी से डॉ बुध्दिनाथ मिश्र और डॉ चंद्रदेव सिंह हिस्सा लेने गए थे. यह आयोजन मंच पर हुए कार्यक्रम की वजह से महत्वपूर्ण नहीं था, बल्कि कवियों की संगत की वजह से महत्वपूर्ण था. यह रमज़ान का महीना था और रेहाना के रोजे शुरू थे. मंच पर पहुंचने से पहले पांच घंटे हमारी आपस में गपशप चली थी. हुगली के तट पर हम घूमें भी थे. यह वह अवसर था जब सुभाष दा ने बेबाकी से स्वीकार किया था कि- मेरा प्रिय रंग लाल, मेरा प्रिय फूल गुलाब' लिखने के वामपंथी रूझान के कारण पाठकों से कवियों का संबंध टूटा है. साहित्य शुष्क होता चला गया. उसमें बदलाव की ज़रूरत है. उन्होंने सुनील् ाको सही राह पर चलने की शाबाशी भी दी. बुध्दिनाथ मिश्र की तारीफ़ सुनील दा और सुभाष दा दोनों ने की कि गीतों को मंच पर जीवित रखने का प्रयास सार्थक है. बांग्ला में इसकी आवश्यकता है. सुभाष दा ने ही बताया कि सुनील तो अपने दोस्तों के बीच बैठकर टेबल पर थाप देकर गीत सुनाते हैं. पर रात को हुआ कवि सम्मेलन रेहाना नवाब का रहा. उन्हें बेहद पसंद किया गया. उसका पहले सुभाष दा की फरमाइश पर वे गेस्ट हाउस में जहां हम ठहरे थे, पहले भी अपनी दो ग़ज़लें वे सुना चुकी थीं. उसके बाद तो ओएनजीसी, कॉपर इंडिया एवं स्टील अथॉरिटक के हिन्दी दिवस समारोहों के कवि-सम्मेलन में मुझे रेहाना के साथ कविता पाठ का आमंत्रण था. भारतीय भाषा परिषद में आयोजित ओएनजीसी के कार्यक्रम में तो सुनील दा भी बुलाए गए थे और नई पीढ़ी के समर्थ कवि जय गोस्वामी भी थे. जिनकी तरफ मेरा ध्यान इसलिए भी गया था कि उनके हाथ से काव्य-पाठ के पूर्व वे पन्ने छूट गए जिसे देखकर वे पढ़ने वाले थे. और वे बगैर हड़बड़ाए बेपरवाह उन्हें एक-एक कर सहजने में लग गए.
रेहाना से घनिष्ठता बढ़ी और मैं उनके घर कभी-कभी जाने लगा था. घर क्या वे मस्ज़िद में ही सबसे ऊपर रहती थीं. मुझे डर भी लगता था वह लकड़ी की लगभग टूटती सी घुमावदार सीढ़ियां चढ़कर उनके यहां जाना पड़ता था. ढेर सारे कबूतर वहां उड़ते रहते थे. और फिर जिस दरवाज़े पर मैं दस्तक देता था उसके पीछे घर कैसा था मैं नहीं जानता. क्योंकि वे उससे निकल कर बाहर आ जातीं और सीढ़ियों के पास ही बड़ी सी खिड़की थी उसी पर हम बैठ जाते या फिर मैं सीढ़ियों पर होता और वे खिड़की पर. यूं इस तरह बैठकर उनसे बातें करना, उनकी ग़ज़लें सुनना और अपनी सुनाना अच्छा लगता. पर उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जान पाया. इतना भर याद है कि वे अपने को मुर्शिदाबाद के नवाब ख़ानदान की बतातीं. फिर ये कि निक़ाह हुआ था पर जल्द तलाक हो गया. और उन दिनों वे फिर निक़ाह करने की ख्वाइशमंद थीं. गपशप के बाद वे मुझे मस्ज़िद के पास ही के ज़ायका' रे/ां की फिरनी खिलातीं. उन्हीं ने पहले-पहल खिलाया तो जाना कि फिरनी क्या है.
यह उन्हें बेहद प्रिय था. यह जानने के बाद कि मैं उस प्रतिभा सिंह का शौहर हूं जो कव्वाली गाती है तो उन्हें हैरत हुई थी कि मैंने इसकी ऌज़ाजत कैसे दी हुई है. उनकी नज़र में कव्वाली गाने वाली औरतें चिड़िया थी. जो कभी भी उड़ सकती है. फिर तो मेरे घर का जब भी वे हाल पूछतीं मैं कहता-नहीं अभी चिड़िया नहीं उड़ी.'
दो-तीन आयोजनों में हम और मिले. इस बीच जनसत्ता सबरंग' के लिए मैंने बंगाल की उर्दू शायरी पर 9 सफे की कवर स्टोरी लिखी. जिसके साथ प्रकाशनार्थ मैैंं रेहाना नवाब की तमाम वे तस्वीरें ले गया जिसमें वे दुनिया भर के नामचीन शायरों के साथ अलग-अलग देशों के मुशायरों में थीं. पर मैं यह उन्हें कभी लौटा नहीं पाया. उन दिनों अरविंद जी सबरंग' के संपादन प्रभारी थे. और ये तस्वीरें उनकी अत्यधिक व्यस्तताओं के कारण कहां दबी रह गई खोजा नहीं जा सका. रेहाना उन तस्वीरों के प्रति इस कदर आसक्त थीं कि उसके आगे हमारी दोस्ती नगण्य हो गई. उन्हें तस्वीरें नहीं मिलीं और मैं उन्हें न लौटा पाने की शर्म से बचने के लिए इस कदर कतराया की बरसों से संबंध ही नहीं रहे.
शहूद ज्यादातर मुशायरों में सदारत ही करते थे. दो मुशायरे ऐसे रहे जिनकी सदारत शहूद ने की थी. और वहां उन्होंने भी बाकी शायरों की तरह सराहा था. उर्दू के शायरों से मेरे खयाल अलग तरह के थे जो उन्हें ताज़गी का अहसास दिलाते थे. मुझे यह देखकर अज़ीब लगता था कि मुशायरों में मुझे रचनापाठ के लिए आमंत्रित करने से पहले यह ज़रूर याद किया जाता है कि हिन्दू भी भी शायरी करते हैं और उनमें फ़िराक साहब से लेकर कृष्ण बिहारी नूर और शीन क़ाफ निज़ाम तक को याद किया जाता है.गोया उर्दू और शायरी केवल मुसलमानों से जुड़ी है और हम विजातीय हैं. यह बात मुझे ज़रूर सालती रही है पर प्रमाद ऐसा की उर्दू नहीं सीख पाया. वह तो प्रतिभा थोड़ा-बहुत पढ़ और समझ लेती है सो टीस कम होती है. कभी-कभार इंशा' और शहूदी' हमारे यहां आ जाती है तो प्रतिभा से उसमें का कुछ पढ़वा लेता हूं.
यूं मुशायरों में एकाध बार कोलकाता से बाहर भी गया हूं. कथाकार सृंजय का एक बार आसनसोल से बुलावा आया था. तब तक वे अपनी कहानी कामरेड का कोट' के लिए खासे चर्चित हो चुके थे. आसनसोल के इस आयोजन में हिन्दी के प्रतिनिधित्व के ख़याल से दो कवियों को भी शामिल किया गया था. दूसरे थे अरविंद चतुर्वेद. हमें पहले अंदाज़ा नहीं था कि खलिस मुशायरे में शामिल होने जा रहे हैं. आसनसोन के इंकम टैक्स कमीश्नर उसमें ख़ास मेहमान थे. सृंजय जी हमें रिसीव करने रेलवे स्टेशन पर पहुंचे थे और स्टेशन से कमीश्नर साहब के घर पहुंचे थे और वे केवल हम दोनों के मेज़बान बनाए थे. अरविंद जी दूसरी ट्रेन से पहुंचे थे सो मैं अकेले ही उनका मेज़बान रहा. और कमीश्नर की कार से हम आसनसोल से 10-12 किलोमीटर दूर पहुंचाए गए जहां मुशायरा था. यह अद्भुत था कि वहां एक सिनेमा हॉल का नाइट शो रद्द कर दिया गया था और शायर पर्दे के सामने बैठाए गए थे. मुशायरा खूब जमा. रात भर लोग जमे रहे. मैंने तो खैर अपनी ग़जलें सुनाई थी और उनके बीच खप गया. खप ही नहीं गया पसंद भी किया गया. यहां तक की लोग और सुनना चाहते थे. सृंजय ने बाद में कहा भी कि यार और सुनाना था. लोग सुनना चाहते थे. मगर अरविंद अपनी आदत के मुताबिक डायरी में मुंह गड़ाए हुए श्रोताओं की हूटिंग से बेपरवाह अपनी कविताएं पढ़ने में मशगूल रहे. उनके लिए सभागार में वे थे और उनकी कविता की डायरी थी. जिन्हें उन्हें पढ़ना था. उनकी कविताएं सभागार के श्रोताओं को नहीं किन्हीं अदृश्य शक्तियों को संबोधित थीं. मानो वे मंत्र पढ़ रहे हों. उनकी महत्वपूर्ण कविता- मेरे सीने में एक बच्चा है ' क़ो भी मुशायरे के श्रोताओं ने हूट कर दिया था. किसी ने ऊंची आवाज में कहा था -सीने में बच्चा. यह कैसे मुमकिन है.' दूसरे ने कहा था-यार औरत के पेट में होता है बच्चा. यह मर्द है इसके सीने में है.' इस मुशायरे में कोलकाता से डॉ मुज़फ्फर हन्फी जैसे शायर भी थे.
शहूद रोजमर्रा की ज़िन्दगी पर लिखने वालों में से नहीं थे. वे ज़िन्दगी में गहरे पैठ कर वह बयां करना चाहते थे जो काल के परे हो. वे उस दर्द की अभिव्यक्ति देना चाहते थे, जो इंसान को एक माने देता है. जीवन की सार्थकता और मूल्यवत्ता उनकी चिन्ता का केंद्र रही. उनका एक शेर है-रीढ़ की हड्डियां भी चटखने लगे. खुद को इतना झुकाना नहीं चाहिए.'
गरीबों को उन्होंने क़रीब से देखा था. पर ग़रीबी से नफ़रत नहीं की. वे चाहते थे ग़रीबों के प्रति समाज का हमदर्द चेहरा-कुछ हंसी गरीबों की ऐ अमीर मत छीनो/इक ज़माना लगता है इनको मुस्कुराने में.'
बिहार, उत्तरप्रदेश से बंगाल के कल-कारख़ानों में काम करने आने वालों के हालात पर वे मर्माहत थे. इस पर लिखा उनका शेर मुझे अक्सर याद आता है- मैं तो फुटपाथ पे रहता हूं तुम्हें क्या लिक्खूं/ उसने ख़त भेजा है कलकत्ता बुला लो मुझको.'
उन्नत ललाट, अच्छी कद काठी, बड़े-बड़े अर्ध घुंघराले बाल, अमूमन पायज़ामा-कुर्ता और मुशायरों में शेरवानी पहने शहूद भाई की शक्ल याद हो आती है. उनसे व्यक्तिगत तौर पर बात कभी नहीं हो पाई. ऐसा कभी नहीं हुआ कि हम दोनों अकेले गुफ्तगू कर पाते. चूंकि वे प्रतिभा से जुड़े थे, सलीम भाई से जुड़े थे. मैं खुलकर नहीं मिल पाता था. मैं नहीं चाहता था कि सलीम भाई जाने की मैं पीता हूं. शहूद से इसलाह करने वाले मुझे बताते थे कि वे पीकर ही शायरी पर बात करना पसंद करते थे. सलीम भाई के घर के पास ही बेलगछिया बस्ती में वे रहते थे. मैं सलीम भाई के घर जाकर भी उनके घर नहीं जा पाया, इस भय से कि वे पीने के लिए बैठा लेंगे तो न हां करते बनेगा न ना. सलीम भाई हाजी हैं. महज कव्वाली गाकर जहां कलाकारों के लिए अपनी रोटी का इंतज़ाम करना भारी लगता है वहीं उन्होंने न सिर्फ खुद हज किया, बल्कि अपनी मां को लेकर वे हज गए.
जिस समय वे और उनकी मां हज पर जा रहे थे बस्ती वालों का उनके प्रति सम्मान देखकर प्रतिभा इतनी भाव विह्वल हो उठी की उसके जी में आया था कि काश वह भी कभी हज पर जाए. जो किसी तरह मुमकिन नहीं.
सलीम भाई से मेरे कई रिश्ते हैं. कुछ परिभाषित, कुछ अपरिभाषित. अव्वल तो वे प्रतिभा के संगीत गुरूओं में से एक हैं. कव्वाली गायन का वह हुनर जो श्रोताओं के सिर चढ़ कर बोलता उन्हीं से सीखा है. दूसरे उनकी पत्नी नाज़िमा मुझे बरसों से राखी बांधती आई है. यहां कोलकाता से बाहर होता हूं तो यह जरूर हुआ है कि मेरी बहनों की राखी देर से मिली या मिली ही नहीं पर उसकी राखी हमेशा समय पर मिली. कुछ और भी रिश्ते हैं जो अपनी जगह ख़ुद बना लेते हैं. मेरी बेटी की दोस्त है उनकी बेटी-रूबी और दोनों मिलकर फिलहाल पेंटर बनने की तैयारी में जुट जाती हैं और कला की बुलंदी पर पहुंचने के ताने-बाने बुनती रहती हैं. उनकी सबसे छोटी बेटी का नाम प्रतिभा के पापा ने रखा है.वे सीमा सुरक्षा बल में हैं. कश्मीर में डयूटी पर उन्हें जब फोन से सूचना मिली की उन्हें चौथी बेटी ही हुई है तो उन्होंने वहीं से उसका नामकरण कर दिया-शबनम. जो रख दिया गया और पहले से सोचे और तयशुदा नाम बेकार हो गए. और एक रिश्ता जो बना नहीं पर मेरी ज़िन्दगी को उसकी उजास रोशन किए रखेगी वह यह कि उनकी बड़ी बेटी रेशमा ने एक बार इच्छा जताई थी कि वह चाहती है कि हम उसे गोद ले लें.
मेरा कोलकाता में नया घर बनना शुरू होता इससे पहले मुझे अमृतसर में अमर उजाला' का ऑफर मिल गया. पर घर बनाने का काम जो शुरू हुआ तो वह अंज़ाम तक पहुंचा. वह जो आज हमारा घर है उसमें सबसे अधिक योगदान किसी का है तो सलीम भाई का. हम हम जब कभी साथ खाने बैठते हैं तो सलीम भाई कहते हैं कि -भाई श्री गणेश वाले श्री गणेश करें हम बिस्मिल्लाह करते हैं.' मेरे घर काम करने वाली बाई को दुर्गा पूजा में तो तोहफ़ा हम देते ही हैं ईदी भी देते हैं. वह उन्हीं लोगों में से जिन्हें उर्दू वाले अपनी जाति का बताते हैं. यह बताने की बात नहीं है उनकी वजह से हमारे घर में झटका' नहीं चलता और शायद हमारी वज़ह से उनके घर में दो नंबर का मीट' नहीं आता. हमारे घर के कोनों में पांचोें वक्त के नमाजी भी बसे हैं. यह ऐसा घर है हिन्दी वाले का जिसकी तामीर हाजी ने करवाई है और जिसे लोग हमारी बगैर सहमति जाने कव्वाली बाड़ी' कहते हैं. मैं क्या बताऊं कि उर्दू वाले शहूद से मेरा क्या रिश्ता था अौर मैं उसे क्यों चाहता था.
ईद के मौके पर कोलकाता दूरदर्शन के  कव्वाली गायन के लिए सलीम नेहाली और प्रतिभा सिंह को आमंत्रित किया था, तो इसकी सराहना हुई थी. पर यह प्रायोजित था. सरकारी आयोजनों में साम्प्रदायिक सद्भावना दिखलाने की कोशिश होती है. इक्तफाक से यह नकली और प्रायोजित कार्यक्रम न था. यहां आरएसएस को बातचीत के लिए कोई गुंजाइश नहीं है. सलीम और प्रतिभा का कैसेट हिन्दलवली ख्वाज़ा कुछ वर्ष पहले निकला तो किसी प्रपोगेंडा के तहत नहीं. नुसरत अली खां का मुरीद मैं भी हूं अकेली प्रतिभा नहीं. वह तो नुसरत साहब से गंडा बंधवाना चाहती थी. पर वे नहीं रहे. हम दोनों ने ही सुना था एक साथ उनका प्रत्यक्ष गायन. कोलकाता के युवा भारती क्रिणांगन में. खुशी यह देखकर भी हुई कि नुसरत साहब का वह आयोजन उन्होंने बड़े गुलाम अली खां साहब को समर्पित किया था. और बड़े गुलाम अली खां साहब के पौत्र उस्ताद रज़ा अली खां न सिर्फ उस आयोजन में मंच पर थे, बल्कि मंच पर इकलौती कुर्सी लगाई गई जिस पर इस युवा गायक को पूरा सम्मान सहित नुसरत साहब ने बैठाया. उनके दादा के और भारत के महान शा/ीय संगीत के गायक के प्रति सम्मान प्रकट करने का यह तरीका मोहक ह्नगा.
जिस समय मंच पर बिछे गद्दों पर तो बैठकर नुसरत साहब ने गाया उनके अनुरोध पर पूरे समय रज़ा अली कुर्सी पर बैठे रहे. लगभग अस्सी हजार दर्शकों के सामने. बाद में रज़ा अली ने ही बताया कि खां साहब उनके घर भी गए थे. उनके घर पर उनके परिवार वालों के साथ ली गई तस्वीरें भी उन्होंने मुझे दिखाई. खां साहब के गायन वाले दिन ही मुझे लगा कि यह मेरे लिए भी गौरव का विषय है कि रजा अली से मेरे दोस्ताना ताल्लुकात हैं और समय-समय पर मैं 21 बालू हकाक लेन, पार्क सर्कस, कोलकाता-17 स्थित उनके घर पर भी जाता-आता रहा hM. अपने गायन की कुछेक महफ़िलों में भी सुनने के ह्निए उन्होंने बुलाया तो मैं पहुंचा था.
कुछेक बार उन पर लिखा भी. यह दुर्भाग्यपूर्ण ही मानता हूं कि पटियाला घराने के सबसे महत्वपूर्ण गायक और अपने पिता उस्ताद मुनव्वर अली खां से संगीत की तालीम याफ्ता रज़ा को बड़े गुलाम अली खां का वारिस नहीं माना जाता, जबकि उस्ताद मुनव्वर अली खां के ही शिष्य पंडित अजय चक्रवर्ती को उनका वारिस माना जाता है. मैंने दोनों का गायन सुना है. हालांकि मैं संगीत नहीं समझता पर रज़ा की आवाज़ दिल में जगह बनाती है. बड़े गुलाम अली खां की संगीत परंपरा का सही वारिस होने पर भी कोलकाता में कुछ वर्ष पहले विवाद चला और संगीत रिसर्च अकादमी के निदेशक पंडित विजय किचलू ने पंडित अजय चक्रवर्ती के पक्ष में इसकी पुरज़ोर वकालत की थी. तो मैं बात दूरदर्शन के कार्यक्रम की कर रहा था. प्रतिभा ने कार्यक्रम से लौट कर बताया कि इसका आयोजन ए क़े ख़ान ने किया है, तो मुझे खुशी हुई. मैं उनसे अच्छी तरह से परिचित था. वे उर्दू के अच्छे कथाकार हैं और एज़ाज़ साहब मैं और खान एक साथ जाम भी टकरा चुके थे. पर प्रतिभा ने उनसे मेरा ज़िक्र नहीं किया था. जब उनका तबादला किसी और शहर के दूरदर्शन में हुआ तो उन्हें सलीम भाई ने अपने यहां दावत दी थी. यह जानने के बाद की खान साहब मेरे भी परिचित हैं मुझे और प्रतिभा को भी दावत में शामिल कर लिया था और बेलगछिया से शामिल किए गए थे शहूद. उस दिन शहूद ने कई उम्दा ग़ज़लें सुनाई थी और एक नज्म. पर नज्म मुझे कमजोर लगी थी. मेरी ग़ज़लें उन दोनों ने पसंद की थी. पर मेरी एक ग़ज़ल का रदीफ़ से काफ़िया नहीं मिल रहा था. शहूद मुझे समझाने की कोशिश कर रहे थे उर्दू में धुआं के रदीफ़ से कुआं का काफ़िया नहीं मिलता. चूंकि मैं उर्दू नहीं जानता था इसलिए मेरी ग़ज़लों की क़िताब रतजगे' नहीं आई. लिखे जाने के बावज़ूद. मैं उर्दू वाला नहीं हूं न-जहां एक और उर्दू दां होने का दर्द बयां करते हुए कई आलेख सामने आए हैं पता नहीं मेरा उर्दू वाला न होने का दर्द समझा जाएगा या नहीं. यह दर्द अनायास मेरी कलम से फूटा है- मैं बशीर बद्र नहीं हूं कि कोई शेर लिखूं. मैं तो बस लिखता हूं और शेर समझ लेता हूं.' शायद उर्दू वालों के दर्द के रदीफ़ से मेरे इस हिन्दी वाला होने के दर्द का काफ़िया मिल जाए. या फिर उस तपन दास के दर्द से ही, जो अच्छा सुरकार है, ग़ज़ल गाने का हुनर जानता है, पर उर्दू वाला नहीं है.


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