व्यक्ति नहीं संस्था हैं शंभुनाथ

इश्क़ ने लिखना सिखाया


संस्मरण

-डॉ.अभिज्ञात

दिलाया याद तो मैं खोजता हूं/ कहीं पर था, कहीं तो दिल रहा है। भला हो वैलेंटाइन डे का जिसके कारण साल में एकाध बार ही सही दिल का खयाल आ जाता है। वरना आज के दौर में चालीस पार के एक सामान्य आदमी को ग़मे-जहां के हिसाब से फ़ुरसत कब मिलती है। साहित्य की दुनिया में विधिवत आये दो दशक हो गये हैं। अब जबकी मेरी नौवीं किताब कहानी संग्रह तीसरी बीवी आयी है तो गौर करता हूं तो पाता हूं कि मेरे इस संग्रह में इश्क पर इक्की-दुक्की रचना ही है। जबकि यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं कि मेरा लेखन इश्क़ की देन है। सातवीं-आठवीं कक्षा में रहा होऊंगा जब मैंने अपने शहर से तीन-चार सौ मील दूर पहाड़ी बने एक कांवेंट स्कूल में पढऩे और वहीं हॉस्टल में रहने वाली हम-उम्र लड़की को बीस-बीस, तीस-तीस पेज के लम्बे ख़त लिखता था। उन्हीं दिनों रेडियो पर देर रात को पाकिस्तानी ग़ज़लें सुनता था ताकि दिल की धड़कनों को कोई भाषा दे सकूं। लेकिन मेरे दिल की भाषा ग़ज़लों से तो मेल खाती थी लेकिन थोड़ी ज़ुदा-ज़ुदा थी। सो उन ग़ज़लों का इस्तेमाल मैं चाहकर भी अपने ख़तों में नहीं कर पाता था सो खुद ही ग़ज़लनुमा सा कुछ लिखने लगा था और उनका अपने ख़तों में जमकर इस्तेमाल किया। लम्बे ख़त लिखने के लिए घर में छिप-छिपाकर समय कम मिलता था तो क्लासरूम में लिखने लगा। उस दिन वाइस प्रिंसिपल देशपाण्डे मैडम की क्लास थी और वे कुछ और पढ़ा रहीं थी और मैं पिछली सीट पर बैठे ख़त लिख रहा था। मेरी तलाशी ली गयी और ख़त पकड़ा गया। महिला प्रिंसिपल के रूम में बंद कमरे में मुझे अपना पत्र पढऩे का आदेश हुआ था। मैं रोता रहा और पत्र पढ़ता रहा। ख़त फाड़कर हाफ़पैंट की ज़ेब में रख दिया। प्रिंसिपल ने यह पूछा था कि यह कवितानुमा बातें कहां से ली है। जब मैंने बताया कि मैंने खुद लिखी है। उन्होंने मेरी प्रशंसा भी की थी कि मैं अच्छा लिख सकता हूं लेकिन मेरी उम्र प्रेम करने की नहीं है और मुझे कुछ और लिखना चाहिए। ख़त में लिखी कविताओं ने मुझे उनकी पिटाई से या अभिभावक के पास शिकायत से बचा लिया लेकिन मैं दंड से बच नहीं पाया।
फटा हुआ लम्बा पत्र मेरी जेब में लापरवाही की वजह से पड़ा रह गया एक दिन बाद जब मां ने कपड़े धोने के लिए पैंट हाथ में लिया तो ज़ेब से फटा हुआ पत्र उनके हाथ लग गया। इश़्क के चक्कर में मेरी यह पहली पिटाई थी। उस दिन मैंने जाना कि झाड़ू से पिटने का दर्द, चप्पल के पिटने के दर्द से अलग होता है। घूंसे और थप्पड़ का स्वाद अलग होता है। डंडे से खायी गयी मार का आनंद अलग है। और जब रेडियो पर कहीं मुकेश का गीत बज रहा हो तो इश़्क में पिटने की खुमारी देर तक नहीं उतरती। बहने वाले आंसू निकलते समय कितने गर्म लगते हैं और कितनी देर बात वे गालों पर ठंडे लगने लगते हैं इसका पहला स्वाद था। और मार खाने के बाद कालोनी में घर के बाहर पास पड़ोसियों के समक्ष ज़ार-ज़ार रोना कैसा लगता है। रोना बंद होने के बाद भी बिस्तर पर लेटने पर देह कितनी देर तक कांपती और थरथराती रहती है यह पहली बार जाना था। बरसों बाद उन दिनों की याद में मैंने एक शेर लिखा-कभी रोने के मैं सारे सलीके सीख जाऊंगा। किनारे झील के मैंने अभी रोकर नहीं देखा।
बात यहीं ख़त्म हो जाती तो फिर क्या बात थी। लेकिन ख़तों ने मुझे फिर जोख़िम में डाल दिया। हुआ यह था कि मेरी एक सहपाठी, दोस्त और मुंहबोली बहन थी, जिससे मैं अपने जीवन की तमाम बातें शेयर करता था। फिर उससे अपनी किशोर उम्र की पहली मुहब्बत कैसे और क्यों छिपाता। उसने बहुत मिन्नतें की थीं कि मैं उसे अपने ख़त्म ज़रूर पढ़ाऊं। और चूंकि ख़त लम्बे होते थे वह उन्हें पढऩे अपने घर ले जाती थी। उसके पिता वहां काम करते थे जिसमें मेरे पिता। एक ही कालोनी में कंपनी के फ्लैट्स में हम रहते थे। और एक दिन ऐसा हुआ कि उसकी क़िताबों में छिपाकर रखा मेरा एक ख़त उसकी लापरवाही से उसके घर में फर्श पर गिर गया, जो उसके पिता के हाथ लग गया। मेरे इश्क़ के जगज़ाहिर होने की यह दूसरी ख़तरनाक़ घटना थी।
उसके नतीज़े जल्द ही सामने आये। मेरी दोस्त के पिता ने मेरे पिता को वह पत्र पकड़ा दिया। वह मेरी मां के पास पहुंच गया। पिछली पिटाई के निशान अभी क़ायम थे और दर्द बरकरार। अबकी बार मरम्मत अधिक हुई। पिटाई संगीन स्थिति तक इसलिए भी पहुंची क्योंकि मेरे पिता की नौकरी पर बन आने की आशंका मेरे मां के मन में घर कर गयी थी। उसका कारण यह था कि मेरे पिता और मेरी मित्र के पिता जिस कंपनी में नौकरी करते थे उसके बॉस उस लड़की के पिता थे जिसे मैं ख़त लिखता था। नौकरी की असुरक्षा ने बेटे के कुकृत्य को अधिक संगीन कर दिया था। यह एक ऐसा अपराध था जिसके चलते हम पांच भाई-बहनों वाले परिवार की आर्थिक सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती थी।
यह सब उस उपन्यासों की वजह से हुआ था जिसे मेरे पिता व मां अक्सर पढ़ा करते थे। वे रानू के पाकेटबुक्स उपन्यास थे, जिन्हें हिन्दी में लुगदी साहित्य कहा जाता है। रानू के उपन्यासों की मुख्य थीम थी एक गरीब युवक का किसी अमीरजादी से प्यार करना। नायक की खूबी यह होती थी कि वह कोई लेखक या चित्रकार होता था। यह उपन्यास मेरे पिता जब काम से लौटते थे तब पढ़ते थे और घर के काम से फ़ुरसत मिलने पर मेरी मां। हम भाई-बहनों को उपन्यास से दूर रहने को कहा जाता था। इसलिए उनके प्रति आकर्षण बढ़ा और जब भी घर में अकेले रहने का मौका मिलता मैं उन्हें पढ़ता। मुश्क़िल यह थी कि मन बेचैन रहता कि आगे क्या हुआ लेकिन उपन्यास लौटा दिया जाता। आखिरकार हल यह निकला कि मैं अपनी पाकेटमनी से उपन्यास किराये पर लाकर पढऩे लगा। वह भी देर रात तक पढ़ाई का बहाना कर। मेज़ की दराज़ हमेशा खुली रखता और जैसे ही मां के आने की आहट मिलती उपन्यास को दराज़ में डाल देता। तो रानू के उपन्यासों का उस किशोर उम्र में ऐसा प्रभाव पड़ा कि मैं बचपन से ही ऐसी प्रेमिका की तलाश में जुट गया जो अमीरजादी हो। स्वाभाविक था कि मेरे पिता क्लर्क थे और मुझे सबसे अमीर कंपनी बॉस ही लगे। शाम को कंपनी की ओर से बना क्लब खुलता था जिसमें टेबिल टेनिस, ताश, चेस, कैरम, बैटमिंटन, बालीबाल खेलने की सुविधा थी। लाइब्रेरी भी थी। मैं शाम को क्लब रोज़ जाता था और जल्द ही मैं टेबिल टेनिस और बालीबाल का अच्छा खिलाड़ी बन गया। इन दोनों खेलों में मैंने कई पुरस्कार भी जीते। और खेलों मेरा करियर भी बन जाता अगर मैंने गेम्स कोटे में सीआरपीएफ के सब-इंस्पेक्टर की नौकरी पर लग जाता जिसके लिए मेरा बिना कोई विशेष प्रयास किये ही आसानी से चयन हो गया था। मुझे ट्रेनिंग के लिए बनारस से ट्रेन पकड़नी थी मंगर  नासमझी में मैंने वह नौकरी ज्वाइन नहीं की थी।
तो बात चल रही थी खेलों की। मैं उन दिनों जिससे प्रेम करने का मन बनाये हुए था वह छुट्टियों में स्कूल से अपने माता-पिता के यहां लौटती और शाम को टेबिल टेनिस खेलने आती जिसका मैं अच्छा खिलाड़ी था। वही हमारे परिचय की वजह बना था। और उससे अपनी बात सीधे कहने के बदले मैंने ख़त लिखने का जोखिम उठाया तो मेरे लिए मुसीबत बन गया।
मेरे ख़त मुसीबत तो उस लड़की के लिए भी बने जिसे मैं खत लिखता था। उसके कांवेंट स्कूल में ख़तों के मोटे लिफाफों के आने का सिलसिला चला तो स्कूल के सम्बंधित विभाग को शुबहा हुआ। वार्डेन ने लिफाफा फाड़ा और खत पढऩे के बाद प्रिंसिपल तक पहुंचा दिया गया। बाद के भी कुछ खतों का यही हस्र हुआ और आखिरकार लड़की को बुलाकर ख़त लिखने वाले के बारे में पूछताछ की गयी। चूंकि खतों से भी यह स्पष्ट था कि मामला दोतरफा नहीं है और बात केवल प्रस्ताव के स्तर की है। ख़तों का तरीका रचनात्मक है तो लड़की को यह कहकर छोड़ दिया गया कि वह जब कभी पत्र लेखक से मिले उसे समझा दे कि अइन्दा ख़त न लिखे। अलबत्ता उसने दो महीने बाद मुझसे कहा था कि मैं उसे ख़त न लिखा करूं क्योंकि यदि ख़तों के बारे में उसकी प्रिंसिपल ने उसके पिता को बता दिया तो मेरे पिता की नौकरी ख़तरे में पड़ जायेगी। पत्र में लिखी बातों के बारे में उसका कहना था कि पत्र की ज्यादातर बातें उसकी कठिन भाषा होने के कारण समझ में नहीं आयी। प्रणय निवेदन और आईना-ए-दिल जैसे शब्द अंग्रेजी मीडियम में पढऩे वाली किशोरी के लिए कठिन थे। मेरे पत्र का और कोई जवाब नहीं मिला। भाषा को लेकर मेरी पहली समझ उस समय बनी कि बातें चाहे कितनी ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हों यदि वह ऐसी भाषा में लिखी हों कि सामने वाले को समझ में न आयें तो लिखना व्यर्थ चला जाता है..जिस कठिन भाषा को मैंने बड़ी मेहनत से अर्जित किया था वही मेरे लिए ख़तों के संदर्भ में बाधक बन गयी थी..मैं भले बाद में साहित्य की दुनिया में किसी हद तक आ गया मगर भाषा को सुगम्य बनाने की कोशिश हमेशा रही।
खैर..पत्र तो मैंने उसे पहले ही लिखना छोड़ दिया था क्योंकि मेरी दो-दो बार घर में अच्छी खातिर हो चुकी थी और मेरे हर लिखे पर मां-बाबूजी की नज़र रहती थी।
चूंकि मेरे ज़ज्बातों का स्टॉक अभी ख़त्म नहीं हुआ था सो मैंने ग़ज़लें और गीत लिखना ज़ारी रखा और मैं अपने साहित्यकार बनने में उनका योगदान मैं मानता हूं। एक बात और मुझे बिगाडऩे वाले मेरे प्रिय उपन्यासकार रानू की उन्हीं दिनों मौत हो गयी। बाद में उनकी पत्नी सरला रानू ने उपन्यास लिखना शुरू किया था। मैंने उन दिनों उन्हें कुछ ख़त भी लिखे थे और वे उनका उत्तर भी देती थीं और अपने अगले उपन्यासों की सूचना भी लेकिन उनके उपन्यासों में वह बात नहीं थी जो किसी किशोर के जीवन की दिशा बदल दे। मैं यहां यह भी बताना चाहूंगा कि रानू के नायकों की तरह मैंने न सिर्फ़ लिखना शुरू किया था बल्कि पेंटिंग भी करने करने लगा था और उसे सराहा भी गया।
गजल या गजलनुमा जैसी बातें मैं उन्हीं दिनों से लिखता आया हूं, जो रतजगे नाम से शायद कभी पाठकों के समक्ष आयें। फिलहाल वह अप्रकाशित है। मुझे तो इश्क़ ने लिखना भी सिखाया है और जीना भी, आप जो समझना चाहें समझें।


2 comments:

  1. बहुत सुन्दर संस्मरण हैं सर सीधा दिल पर चोट करते हैं आपका शब्द चयन लाजवाब है | सर मेरा नाम अभय कुमार भारती हैं और मैं सरला रानू जी का एक उपन्यास जलते पंख के बारे में अधिक जानकारी पाना चाहता हूँ

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