व्यक्ति नहीं संस्था हैं शंभुनाथ

अभिनेत्री महुआ राय चौधरी

संस्मरणः 1985 की बातें
-डॉ.अभिज्ञात
मुझे आश्चर्य हुआ था कि मैं एक बांग्ला फिल्म डायरेक्टर कौशिक अचर्जी को अपनी कहानी हिन्दी में झिझकते हुए सुना रहा था कि पता नहीं वे हिन्दी समझेंगे कि नहीं और उन्होंने पूछा था भोजपुरी आती है? फिलहाल तो उनके पास हिन्दी का काम नहीं है मुझे भोजपुरी में डायलॉग लिखने होंगे और पटकथा भी। जब मैंने कहा कि पटकथा कभी नहीं लिखी तो कहा मैं सिखाऊंगा।
मैंने इस शर्त पर काम शुरू किया था कि बदले में वे अपने सम्पर्क के तमाम लोगों से मेरा प्रभावशाली ढंग से परिचय करायेंगे ताकि मुझे टालीवुड में काम मिले।
उन्होंने वादा पूरा किया। कुदघाट टेक्नीशियन स्टूडियो 2 में उनका आफिस था जिसकी भी शूटिंग होती थी वे वहां मुझे लेकर पहुंच जाते थे और मेरा परिचय सबसे करा देते थे। एक दिन शूटिंग के लिए महुआ राय चौधुरी भी पहुंची थी। और मेरा ऐसा परिचय कराया कि मैं सब काम छोड़कर वहां पहुंचने लगा जहां महुआ की शूटिंग होती। वह स्वयं चाहती थी कि मैं वहां रहूं। वह उन दिनों पारिवारिक कारणों से डिप्रेशन में थी। महुआ ने ही कहा था कि जब तक तुम्हारी कहानी पर कोई फिल्मकार काम न शुरू कर दे इंडस्ट्री में किसी तरह बने रहो। एक्ट्रा कलाकार के तौर पर भी काम करो। और मैंने कई फिल्मों में एक्ट्रा के तौर पर रहा उन फिल्मों के नाम तक मुझे नहीं पता।
फिल्म डायरेक्टर ने बताया था कि वे महुआ तो तब से जानते हैं जब वह कॉलेज के बहाने भागकर फिल्मों में काम मांगने आया करती थी। उस डायरेक्टर ने मुझसे मिलने से पहले कुछ फिल्में बनायी थीं जिसमें एक कजला दीदी भी थी।
जिन दिनों में महुआ से मिला था वह अपने उत्कर्ष पर थी। पति से अनबन चल रही थी। महुआ को हिन्दी मुश्किल से आती होगी और बांग्ला मुझे कम कम समझती थी फिर भी हम बातें करते थे। कई बार मेकअप रूप में मैं बैठ जाता।
उन्हीं दिनों एक युवा डायरेक्टर विमल कुंडू ने मुझे अभियन का आफर दिया था। फिल्म की शूटिंग भुवनेश्वर में होनी थी। कुछ रुपये पैसे भी मिलने थे। मैं लालच में आ गया और मुझे लगा कि रुपये मिलने बात पर मेरे नाना अपना रुख बदल देंगे। दूसरे मैं बिना बताया भुवनेश्वर शूटिंग में जाता तो कैसे जाता। सो बता दिया। उन्होंने मंदिर में ही छाता उठा लिया था मुझे मारने के लिए। नाच-गाना भांड से मुझे जोड़ दिया और परिवार की प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया। फिर तो मेरा टीटागढ़ से कोलकाता जाना भी बंद हो गया। मैंने सियालदह में जार्ज टेलिग्राफ में नाम लिखाया था टाइपिंग और शार्ट हैंड में। उसकी फीस भरता था और रसीद नाना जी को दिखाता था कि मैं पढ़ने जा रहा हूं। और मैं टालीगंज स्टूडिया में अपनी किस्मत आजमा रहा होता था। वहीं दो घंटे भोजपुरी फिल्म की पटकथा और डायलाग लिखता किसी डायरेक्टर को कहानी सुनाता या महुआ की शूटिंग में हाजिर रहता। फिर तो फिल्म जगत से नाता टूटा। महुआ की एक फिल्म देखी सिनेमाहाल में जो मेरी पहली बांग्ला फिल्म थी अनुरागेर छोवा। तुमी आमार आमी तोमार..गीत याद है। फिर नागपुर में एमए की परीक्षाएं दीं। और वहीं आईएएस प्रीलीमिनरी की परीक्षा में बैठा। परीक्षा खराब हो गयी क्योंकि सवाल था कि महुआ राय चौधरी की मौत कैसे हुई? मुझे नहीं पता था वह दुनिया में नहीं रही। कोलकाता लौटा तो पता चला की 22 जुलाई 1986 को संभवतः आत्महत्या कर ली थी..पति के चरित्र की वजह से। या फिर उसको मार डाला गया था। जो भी कारण हो लेकिन मुझसे जिस तरह से पेश आती थी और बातें करतीं थी उसमें कहीं कोई दर्द छुपा हुआ था।

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