व्यक्ति नहीं संस्था हैं शंभुनाथ

फ़िल्मकार विष्णु पालचौधुरी

संस्मरण
डॉ.अभिज्ञात
यह 1985 की बात है। कोलकाता में नया-नया आया था। बांग्ला आती नहीं थी। बहुत से स्वप्न थे बहुत सी कहानियां। नेशनल जूट मैन्युफैक्चरिंग कारपोर्शन आफ इंडिया (एनजेएमसी) की जूट मिलों किनिसन जूट मिल और खड़दह जूट मिल में नानाजी की ठेकेदारी का काम संभालता था और चोरी चोरी टालीगंज निकल जाता था ..सोचता था अपनी कहानियों से इस इंडस्ट्री में जगह बना लूंगा। उन्हीं दिनों मुझे मिले थे विष्णुपाल चौधुरी। अब तो न जाने उन्होंने कितनी फ़िल्मों का डायरेक्शन दिया है व जननी जैसा मेगा बांग्ला धारावाहिक बनाया। उन दिनों कुछ डाक्यूमेंट्री फिल्में बनायी थी। इंद्रपुरी स्टूडियो में मुलाकात हुई थी। अपने घर ले गये पास ही था। एक अनजान स्ट्रगलर को खाना खिलाया। आइसक्रीम खिलायी। कुछ कहानियां संक्षेप में सुनीं। अपनी फिल्मों की कटिंग दिखायी। फिर कहा कोलकाता नहीं मुंबई सही जगह है। वहां जाओ। यहां बांग्ला वाले तुम्हारी कहानी नहीं सुनेंगे। बासु चटर्जी मेरे रिश्तेदार हैं। उन्हें खत लिख देता हूं। कुछ न कुछ हो जायेगा। तुम्हारी कहानियों में दम है। मैंने कहा मुझे तो यहीं रहना होगा। मेरी मां ने मुझे नाना के हवाले कर दिया है। 84 साल के बुजुर्ग को छोड़कर नहीं जा सकता। वे यहां मंदिर में रहते हैं। उनका इकलौता पुत्र नहीं रहा. इसी दुख में। मेरी मां ने उन्हें सम्भालने की जिम्मेदारी मुझे दी है। विष्णुपाल चौधुरी ने कहा मैं तो अभी फिल्में बनाने की स्थिति में नहीं हूं। सुखेन दा यहां सीनियर फिल्म डायरेक्टर हैं। उनका बेटा मेरा दोस्त है रजत दास। वह फीचर फिल्में बनाता है। अभी तो उसकी एक फिल्म फ्लोर पर है अगली के लिए तुम्हारी कहानी पर विचार कर सकता है। फिर उन्होंने मेरी डायरी में रजत दास को एक पत्र लिखा था और उनका पता भी। मैं रजत दास से मिला था। कहानी भी सुनी क्योंकि उनके दोस्त ने सिफारिश की थी। उन्हें पसंद आयी। कुछ दिन बाद मुझे मिलना था। लेकिन इस बीच मेरे नाना जी को मेरी फिल्मी कनेक्शन का पता चल गया और मुझे टालीगंज से तौबा कर लेनी पड़ी। यह उन्हीं दिनों की बात है जब मैं महुआ रायचौधुरी के भी सम्पर्क में आया था। फिल्म डायरेक्टर कौशिक अचर्जी एक भोजपुरी फिल्म की पटकथा भी लिखी थी हालांकि वह फिल्म तीन रील से अधिक नहीं बन पायी।
 


विष्णुदा जिस फ्लैट में रहते थे..उसके एक या दो फ्लोर ऊपर भूपेन हजारिका रहते थे। विष्णु दा उस दिन मुझे भूपेन हजारिका से मिलवाने भी ले गये थे..लेकिन वे घर पर नहीं थे। उन दिनों दूरदर्शन केन्द्र भी उसी तरफ था। जिसमें हिन्दी विभाग में टेबल पर पैर रखकर सिगरेट के छल्ले बनाती सुशील गुप्त नज़र आ जाती थीं। सुशील गुप्त जिनका बांग्ला हिन्दी और उर्दू पर समान अधिकार था और जिन्हें विमल मित्र को हिन्दी जगत से परिचित कराने का श्रेय जाता है क्योंकि ज्यादातर अनुवाद उन्होंने ही किये। और जिन्हें धर्मयुग वाले डॉ.धर्मवीर भारती इतना मानते थे कि उनकी बेटी ही थीं।

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