डॉ.अभिज्ञात
यह एक सार्थक दिन था। जो कवि केदारनाथ सिंह के साथ गुज़रा। 8 मार्च 2010 सोमवार। अपराह्न चार बजे के करीब मैं पहुंचा था उनकी बहन के यहां हावड़ा, बी गार्डेन के पास बीई कालेज के गेट के पास स्थित उनके घर पर। केदार जी ने अपनी मां से मिलवाया था। केदार जी की मां पर लिखी कविताएं मुझे याद थीं, पर 95 साल की उनकी मां से मिलने या कहिए उन्हें देखने का यह पहला अनुभव था। अब केदार जी उन्हें क्या और कैसे समझाते कि मैंने केदार जी पर शोध किया है, सो उन्होंने भोजपुरी में उनसे कहा- 'मैंने इन्हें पढ़ाया है। और ये पास हो गये हैं आपको देखने आये हैं।'
बात उनसे दो घंटे से अधिक देर तक चलती रही। मेरी लिखने पढ़ने की भावी योजनाओं के बारे में उन्होंने पूछा था विचार व्यक्त किया था कि मैं इस बात पर गौर कर रहा हूं कि क्या भोजपुरी को भाषा से इतर भोजपुरी संस्कृति की शिनाख्त नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि बहुत से ऐसे लोग हैं जो भोजपुरी में नहीं हिन्दी में लिखते हैं लेकिन उनकी रचनाओ में भोजपुरी संस्कृति है। वह भोजपुरी संस्कृति किन तत्वों से बनी है,
उसकी
विशेषताएं
क्या
हैं
और
उसका
जीवट
क्या
है
इसकी
अलग
से
शिनाख्त
होनी
चाहिए।
भोजपुरी
को
भाषा
बनाने
की
कवायद
तो
चल
रही
है
किन्तु
भोजपुरी
संस्कृति
को
सिरे
से
परिभाषित
किये
जाने
की
भी
महती
आवश्यकता
है।
मैंने
उन्हें
बताया
कि
मैं
सोच
रहा
हूं
कि 'भोजपुरी
संस्कृति
का
स्वरूपः
कबीर
से
केदार
तक'पर पूरी एक किताब
ही
लिख
मारूं
और
यह
भी
कि
मैं
इसमें
कविताओं
को
केन्द्रीय
धुरी
के
तौर
रेखांकित
करना
चाहता
हूं।
उन्होंने
इस
विषय
पर
लगभग
सकारात्मक
प्रतिक्रिया
दी।
इसी बीच भारतीय भाषा परिषद के निदेशक और आलोचक डॉ.विजय बहादुर
सिंह
की
चर्चा
चल
निकली।
और
केदार
जी
ने
उन्हें
फोन
लगाने
को
कहा।
जब
केदार
जी
से
उनकी
बात
हुई
तो
सहसा
अगली
योजना
बनी
डॉ.कृष्ण
बिहारी
मिश्र
के
यहां
जाने
की।
विजय
जी
ने
बताया
कि
वे
बीमार
चल
रहे
हैं
सो
उन्हें
देख
आया
जाय।
चालीस
मिनट
बाद
हम
भारतीय
भाषा
परिषद
में
थे
विजय
जी
के
यहां
और
अगले
पंद्रह
मिनट
में
कृष्ण
बिहारी
जी
के
घर
की
संकरी
सीढ़ियां
चढ़
रहे
थे।
बात उनकी संकरी
सीढ़ियों
और
घर
की
हालत
को
लेकर
ही
शुरू
हुई
और
केदार
जी
इस
बात
से
मुतमइन
होना
चाहते
थे
कि
यह
वही
कमरा
है
न
जिसमें
वे
लगभग
दो
दशक
पहले
उनसे
मिलने
आये
थे।
कृष्ण
बिहारी
जी
ने
बताया
कि
सीढ़ियों
और
कमरे
की
पुताई
तक
की
सार्वजनिक
चर्चा
लेखों
और
मंचों
में
भी
होती
रही
है।
केदार
जी
ने
बताया
कृष्ण
बिहारी
जी
और
वे
बलिया
में
आसपास
के
गांव
के
हैं
और
वे
जब
बनारस
में
रहकर
पढ़ते
थे
कई
बार
एक
साथ
ट्रेन
पकड़ते
थे।
उन्होंने
अपनी
पुरानी
यादों
को
ताजा
किया
जिसके
क्रम
में
वाक्यपदीयम
के
भाष्यकार
की
भी
चर्चा
छिड़ी
जिसके
बारे
में
केदार
जी
ने
हिन्दुस्तान
दैनिक
में
अपने
कालम
में
लिखा
था
और
जो
उनके
निबंधों
के
संग्रह
'कब्रिस्तान
में
पंचायत'
में
संग्रहीत
है।
कृष्णबिहारी
जी
ने
वह
निबंध
नहीं
देखा
था
सो
पुस्तक
भिजवाने
का
वादा
केदार
जी
ने
किया।
संस्कृत
काव्य 'वाक्यपदीयम' बलिया
की
कचहरी
में
मुकदमे
की
सुनवाई
का
इन्तज़ार
करते
हुए
एक
वृक्ष
के
नीचे
बैठकर
किया
गया
था।
गांव
में
प्रतिभाएं
अपना
काम
किस
प्रकार
और
किस
अंदाज
में
करती
हैं
इसका
ज़िक्र
किया।
कृष्ण बिहारी जी ने अपनी नयी पुस्तक
'न
मेधया' दिखायी
जो
रामकृष्ण
परमहंस
पर
ही
है
जिन
पर
उनकी
एक
और
पुस्तक
'कल्पतरु
की
उत्सवलीला'
आयी
थी।
और
उसी
पर
उन्हें
ज्ञानपीठ
प्रकाशन
का
मूर्तिदेवी
पुरस्कार
मिला
था।
उन्होंने
बताया
न
मेधया
उस
पुस्तक
की
पूरक
है
जिसे
उन्होंने
डेढ़
माह
की
अल्प
अवधि
में
पूरा
किया
और
वह
तुरत-फुरत प्रकाशित
होकर
आ
भी
गयी।
वहां पहले से विराजमान थे मित्र परिषद के पदाधिकारी पारसमल बोथरा। विजय बहादुर जी से वे मुखातिब थे और सन्मार्ग में उनके प्रकाशित साक्षात्कार का जिक्र उन्होंने किया और यह भी चर्चा हुई कि विजय जी इधर कविताएं लिखने में फिर रमे हैं और एक कविता तो कई भाषाओं में अनूदित हुई है। कुल मिलाकर यह एक संक्षिप्त लेकिन दिलचस्प और रचनात्मक सद्भभावना से ओतप्रोत मुलाकात थी। याद नहीं कि किस ने कहा पर कहा गया कि भई किसी के मोबाइल में कैमरा हो तो फोटो हो जाये,
पर
अफसोस
कि
किसी
के
भी
मोबाइल
फोन
में
यह
सुविधा
न
थी।
हम फिर भारतीय
भाषा
परिषद
के
लिए
रवाना
हो
गये
थे।
कार
में
एक
सैमसंग
कंपनी
द्वारा
टैगोर
पुरस्कार
दिये
जाने
की
भी
चर्चा
हुई
जिस
पर
केदार
जी
पहले
ही
सार्वजनिक
तौर
पर
अपनी
नाराजगी
व्यक्त
कर
चुके
थे।
उन्होंने
बताया
कि
कंपनियों
द्वारा
पुरस्कार
दिये
जाने
पर
उन्हें
आपत्ति
नहीं
है
आपत्ति
है
उसमें
साहित्य
अकादमी
की
संलिप्तता
को
लेकर।
साहित्य
अकादमी
चूंकि
स्वयं
भी
पुरस्कार
प्रदान
करती
है
सो
उसे
एक
निजी
कंपनी
को
अपनी
साहित्यिक
सेवाएं
नहीं
देनी
चाहिए
थी।
इससे
उसकी
गरिमा
को
ठेस
पहुंचती
है।
और
इस
सम्बंध
में
पहले
भी
अकादमी
में
नीति
निर्धारित
की
जा
चुकी
थी
कि
उसे
इन
पचड़ों
में
नहीं
पड़ना
चाहिए
और
उसे
निजी
कंपनियों
को
अपनी
सेवाएं
नहीं
देनी
चाहिए।
परिषद पहुंचे तो लिफ्ट पर मिलीं बंगला कवयित्री खेया सरकार। वे परिषद में किसी संस्था द्वारा आयोजित कविसम्मेलन में शामिल होने के लिए गलती से पहुंच गयी थीं,
जबकि
आयोजन
किसी
और
दिन
था।
वे
विजय
जी
से
परिचित
थीं
और
विजय
जी
ने
हम
लोगों
से
उनका
परिचय
कराया
तो
कुछ
देर
वे
हम
लोगों
के
साथ
बैठीं।
बंगाला साहित्यकार सुबोध सरकार,
सुनील
गंगोपाध्याय,
महाश्वेता
देवी, शंख घोष, शक्ति
चट्टोपाध्याय
और
जय
गोस्वामी
की
चर्चा
हुई।
विजय
जी
समकालीन
बंगला
साहित्यकारों
में
शंख
घोष
पर
विशेष
देते
रहे
जबकि
खेया
और
मैं
जय
गोस्वामी
पर।
मैंने
महाश्वेता
देवी
के
गल्प
में
एकहरेपन
की
बात
उठायी
तो
केदार
जी
इससे
असहमत
थे।
केदार
जी
ने
उन
दिनों
की
रोचक
चर्चा
की
जब
अशोक
वाजपेयी
द्वारा
आयोजित
एक
कार्यक्रम
के
तरह
उन्होंने
शक्ति
चट्टोपाध्याय
की
कविताओं
का
बंगला
से
हिन्दी
अनुवाद
किया
था।
फिर बात एकाएक भोपाल की चल निकली और केदार जी ने विजय जी से इच्छा जाहिर की कि उन्हें भोपाल में एक छोटा सा फ्लैट दिला दें। भोपाल उन्हें भी इधर भाने लगा है। विजय जी का अपना आवास वहां है ही। विजय ने आश्वस्त किया कि आपको वहां अलग फ्लैट लेने की क्या आवश्यकता है मेरा एक कमरा अब से आपके लिये बुक हुआ,
जिस
पर
केदार
जी
सहमत
थे।
और
हमें
इस
अनुबंध
का
गवाह
बनाया
गया।
वापसी में कार मुझे सियालदह छोड़ते हुए केदार जी को हावड़ा छोड़ने जाने वाली थी लेकिन केदार जी चाहते थे मैं उन्हें घर छोड़ता हुआ अन्त में सियालदह जाऊं टीटागढ़ के लिए ट्रेन पकड़ने। राह में केदार जी ने मुझे आश्वस्त किया इस बार तो
23 मार्च
को
दिल्ली
में
शलाका
पुरस्कार
लेने
के
लिए
जल्द
लौटना
है।
लेकिन
अगली
बार
कोलकाता
आऊंगा
तो
तीन
माह
रहूंगा।
उसमें
से
एक
सप्ताह
तुम्हारे
यहां।
और
एक
ऐतिहासिक
लम्बा
इंटरव्यू
तुम्हें
दूंगा।
तो
यह
रही
एक
शाम
अपने
वरिष्ठ
लेखकों
के
साथ, जिसका
मैं
साक्षी
था।
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